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अ०१८/प्र०४
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५६७ ___“ग-भोजनादिकी इच्छा उत्पन्न होने पर केवली में नित्य ज्ञानोपयोग नहीं बनता, और नित्य ज्ञानोपयोग न बन सकने पर उनका ज्ञान छद्मस्थों (असर्वज्ञों) के समान क्षायोपशमिक ठहरता है, क्षायिक नहीं। और तब ज्ञानावरण तथा उसके साथी दर्शनावरण नाम के घातियाकर्मों का अभाव भी नहीं बनता।
घ-वेदनीयकर्म के उदयजन्य जो सुख-दुःख होता है, वह सब इन्द्रियजन्य होता है और केवली के इन्द्रियज्ञान की प्रवृत्ति रहती नहीं। यदि केवली में क्षुधातृषादि की वेदनाएँ मानी जाएँगी, तो इन्द्रियज्ञान की प्रवृत्ति होकर केवलज्ञान का विरोध उपस्थित होगा, क्योंकि केवलज्ञान और मतिज्ञानादि युगपत् नहीं होते।
"ङ–क्षुधादि की पीड़ा के वश भोजनादि की प्रवृत्ति यथाख्यातचारित्र की विरोधनी है। भोजन के समय मुनि को प्रमत्त (छठा) गुणस्थान होता है और केवली भगवान् १३वें गुणस्थानवर्ती होते हैं, जिससे फिर छठे में लौटना नहीं बनता। इससे यथाख्यातचारित्र को प्राप्त केवली भगवान् के भोजन का होना, उनकी चर्या और पदस्थ के विरुद्ध पड़ता है।
"इस तरह क्षुधादि की वेदनाएँ और उनकी प्रतिक्रिया मानने पर केवली में घातियाकर्मों का अभाव ही घटित नहीं हो सकेगा, जो कि एक बहुत बड़ी सैद्धान्तिक बाधा होगी। इसी से क्षुधादि के अभाव को घातिकर्मक्षयजः तथा अनन्तज्ञानादिसम्बन्धजन्य बतलाया गया है, जिसके मानने पर कोई भी सैद्धान्तिक बाधा नहीं रहती। और इसलिये टीकाओं पर से क्षुधादि का उन दोषों के रूप में निर्दिष्ट तथा फलित होना सिद्ध है, जिनका केवली भगवान् में अभाव होता है। ऐसी स्थिति में रत्नकरण्ड के उक्त छठे पद्य को क्षुत्पिपासादि दोषों की दृष्टि से भी आप्तमीमांसा के साथ असंगत अथवा विरुद्ध नहीं कहा जा सकता।" (जै.सा.इ.वि.प्र./खं.१ / पृ. ४३९-४४३)।
(ग्रन्थ के सन्दर्भ की जाँच) ३. आप्तमीमांसाकार को केवली में क्षुधादिदोष मान्य नहीं
"अब देखना यह है कि क्या ग्रन्थ का सन्दर्भ स्वयं इसके कुछ विरुद्ध पड़ता है? जहाँ तक मैंने ग्रन्थ के सन्दर्भ की जाँच की है और उसके पूर्वाऽपर-कथनसम्बन्ध को मिलाया है, मुझे उसमें कहीं भी ऐसी कोई बात नहीं मिली, जिसके आधार पर केवली में क्षुत्पिपासादि के सद्भाव को स्वामी समन्तभद्र की मान्यता कहा जा सके। प्रत्युत इसके, ग्रन्थ की प्रारम्भिक दो कारिकाओं में जिन अतिशयों का देवागम-नभोयान-चामरादि विभूतियों के तथा अन्तर्बाह्य-विग्रहादि-महोदयों के रूप में उल्लेख एवं संकेत किया गया है और जिनमें घातिक्षय-जन्य होने से क्षुत्पिपासादि
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