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५६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८ / प्र०४ कल्पना करके दोनों ग्रन्थों के भिन्न-कर्तृत्व की चर्चा को उठाया था, शेष तीन आपत्तियाँ तो उसमें बाद को पुष्टि प्रदान करने के लिये शामिल होती रही हैं। और इस पुष्टि से प्रोफेसर साहब ने मेरे उस पत्र-प्रेषणादि को यदि अपनी प्रथम आपत्ति के परिहार का एक विशेष प्रयत्न समझ लिया है, तो वह स्वाभाविक है, उसके लिये मैं उन्हें कोई दोष नहीं देता। मैंने अपनी दृष्टि और स्थिति का स्पष्टीकरण कर दिया है। (जै.सा.इ.वि.प्र./खं.१/पृ. ४३३-४३४)।
"मेरा उक्त पत्र जिन विद्वानों को भेजा गया था, उनमें से कुछ का तो कोई उत्तर ही प्राप्त नहीं हुआ, कुछ ने अनवकाशादि के कारण उत्तर देने में अपनी असमर्थता व्यक्त की, कुछ ने अपनी सहमति प्रकट की, और शेष ने असहमति। जिन्होंने सहमति प्रकट की उन्होंने मेरे कथन को 'बुद्धिगम्य तर्कपूर्ण' तथा युक्तिवाद को 'अतिप्रबल' बतलाते हुए उक्त छठे पद्य को संदिग्धरूप में तो स्वीकार किया है, परन्तु जब तक किसी भी प्राचीन प्रति में उसका अभाव न पाया जाय, तब तक उसे 'प्रक्षिप्त' कहने में अपना संकोच व्यक्त किया है। और जिन्होंने असहमति प्रकट की है, उन्होंने उक्त पद्य को ग्रन्थ का मौलिक अंग बतलाते हुए उसके विषय में प्रायः इतनी ही सूचना की है कि वह पूर्व-पद्य में वर्णित आप्त के तीन विशेषणों में से 'उत्सन्नदोष' विशेषण के स्पष्टीकरण अथवा व्याख्यादि को लिये हुए है। और उस सूचनादि पर से यह पाया जाता है कि वह उनके सरसरी विचार का परिणाम है, प्रश्न के अनुरूप विशेष ऊहापोह से काम नहीं लिया गया अथवा उसके लिये उन्हें यथेष्ट अवसर नहीं मिल सका। चुनाँचे कुछ विद्वानों ने उसकी सूचना भी अपने पत्रों में की है, जिसके दो नमूने इस प्रकार हैं
"रत्नकरण्डश्रावकाचार के जिस श्लोक की ओर आपने ध्यान दिलाया है, उस पर मैंने विचार किया, मगर मैं अभी किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सका। श्लोक ५ में उच्छिन्नदोष, सर्वज्ञ और आगमेशी को आप्त कहा है, मेरी दृष्टि में उच्छिन्नदोष की व्याख्या एवं पुष्टि श्लोक ६ करता है और आगमेशी की व्याख्या श्लोक ७ करता है। रही सर्वज्ञता, उसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा है। इसका कारण यह जान पड़ता है कि आप्तमीमांसा में उसकी पृथक् विस्तार से चर्चा की है, इसलिये उसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा। श्लोक ६ में यद्यपि सब दोष नहीं आते, किन्तु दोषों की संख्या प्राचीन परम्परा में कितनी थी, यह खोजना चाहिये। श्लोक की शब्द-रचना भी समन्तभद्र के अनुकूल है, अभी और विचार करना चाहिए।" (यह पूरा उत्तर पत्र है)।
"इस समय बिल्कुल फुरसत में नहीं हूँ---यहाँ तक कि दो-तीन दिन बाद आपके पत्र को पूरा पढ़ सका।---पद्य के बारे में अभी मैंने कुछ भी नहीं सोचा
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