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चतुर्थ प्रकरण सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन समन्तभद्र से
पूर्ववर्ती नहीं आप्तमीमांसाकार समन्तभद्र ही रत्नकरण्ड के कर्ता श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल जी संघवी का कथन है कि पूज्यपाद देवनन्दी ने अपने जैनेन्द्रव्याकरण के 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' सूत्र (५,१,७) में सिद्धसेन के मतविशेष का उल्लेख किया है, जिसका उदाहरण नौवीं द्वात्रिंशिका में मिलता है। तथा तत्त्वार्थ के सातवें अध्याय के तेरहवें सूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में सिद्धसेनकृत तीसरी द्वात्रिंशिका के सोलहवें पद्य का "वियोजयति चासुभिर्न वधेन संयुज्यते" यह अंश 'उक्तं च' शब्द के साथ उद्धृत किया गया है। इसलिए आचार्य सिद्धसेन पूज्यपाद स्वामी से पूर्ववर्ती हैं।
० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने इन हेतुओं का निरसन इस प्रकार किया
१. पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि (२/९) में केवली के दर्शनज्ञानोपयोग के युगपद्वाद का प्रतिपादन मात्र किया है, क्रमवाद और अभेदवाद का खण्डन नहीं किया, जब कि अकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक में क्रमवाद और अभेदवाद का खण्डन किया है। इससे सिद्ध है कि पूज्यपाद स्वामी के समय में क्रमवाद और अभेदवाद की मान्यताएँ प्रचलित नहीं थीं, अतः अभेदवाद के पुरस्कर्ता सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन पूज्यपाद से उत्तरवर्ती हैं।८६ ।।
२. पूज्यपाद ने जिन सिद्धसेन का उल्लेख जैनेन्द्र व्याकरण में किया है तथा जिनकी द्वात्रिंशिका का पद्यांश सर्वार्थसिद्धि में उद्धृत किया है, वे दोनों सिद्धसेन अवश्य ही पूज्यपाद से पूर्ववर्ती हैं, इसलिए उत्तरवर्ती सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन से भिन्न हैं। ६
पं० सुखलाल जी संघवी यह भी मानते हैं कि आचार्य समन्तभद्र के स्वयंभूस्तोत्र और युक्त्यनुशासन सिद्धसेन की कृतियों के अनुकरण हैं, इसलिए सिद्धसेन समन्तभद्र से पूर्ववर्ती हैं। (देखिये, प्रस्तुत अध्याय का प्रकरण १/शीर्षक ७.५)। किन्तु जिस
८५. देखिये , प्रस्तुत अध्याय का प्रथम प्रकरण / शीर्षक ७/पैरा ६। ८६. देखिये , वही / शीर्षक ७.१ ।
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