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३१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६ / प्र०१ डॉ० सागरमल जी ने भी मरुतो पाठ को प्रक्षिप्त मानकर सूत्र और भाष्य में उक्त मतभेद अस्वीकार करने की चेष्टा की है,९८ किन्तु वे भी किसी प्रमाण से इसकी पुष्टि करने में असमर्थ रहे हैं। अतः सूत्र और भाष्य में लौकान्तिक देवों की संख्या के विषय में जो यह मतभेद है, उससे सिद्ध होता है कि दोनों के कर्ता भिन्नभिन्न व्यक्ति हैं। सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ में लौकान्तिक देव आठ ही माने गये हैं
और भाष्यकार को भी आठ ही मान्य हैं। इससे साबित होता है कि सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ ही मूलपाठ है।
मुख्तार जी ने सूत्र और भाष्य में अन्तर्विरोध दर्शानेवाले उपर्युक्त चार उदाहरण दिये हैं। सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री ने भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित 'सर्वार्थसिद्धि' की प्रस्तावना में कुछ अन्य उदाहरण भी दिये हैं, जो नीचे प्रस्तुत किये जा रहे हैं२.९. सम्यग्दृष्टि और सम्यग्दर्शनी
"तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शनी से सम्यग्दृष्टि को भिन्न नहीं माना गया है। वहाँ ('शङ्काकांक्षाविचिकित्सा' ९९ इत्यादि सूत्र) में ऐसे सम्यग्दर्शनवाले को भी सम्यग्दृष्टि कहा गया है, जिसके शंका आदि दोष संभव होते हैं। किन्तु इसके विपरीत तत्त्वार्थभाष्य में सम्यग्दर्शनी और सम्यग्दृष्टि इन दोनों पदों की स्वतन्त्र व्याख्या करके सम्यग्दर्शनी से सम्यग्दृष्टि को भिन्न बतलाया गया है। वहाँ कहा गया है कि जिसके आभिनिबोधिक ज्ञान होता है वह सम्यग्दर्शनी कहलाता है और जिसके केवलज्ञान होता है, वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है।०० स्पष्ट है कि यहाँ पर तत्त्वार्थभाष्यकार तत्त्वार्थसूत्र का अनुसरण नहीं करते और सम्यग्दृष्टि पद की तत्त्वार्थसूत्र के विरुद्ध अपनी दो व्याख्यायें प्रस्तुत करते हैं। एक स्थल (अध्याय १/ सूत्र ८) में वे जिस बात को स्वीकार करते हैं, दूसरे (अध्याय ७/सूत्र २३) में वे उसे छोड़ देते हैं।"(स.सि./प्रस्ता./पृ.६७)। २.१०. 'मतिः स्मृति:---'
"तत्त्वार्थसूत्र में मति, स्मृति और संज्ञा आदि मतिज्ञान के पर्यायवाची नाम हैं।१०१ किन्तु तत्त्वार्थभाष्यकार इन्हें पर्यायवाची नाम न मानकर 'मतिः स्मृतिः' इत्यादि सूत्र
९८. जै.ध.या.स./ पृ. २९१-२९२। ९९. तत्त्वार्थसूत्र (दिगम्बर) ७/२३, (श्वेताम्बर) ७/१८। १००."अत्राह-सम्यग्दृष्टिसम्यग्दर्शनयोः कः प्रतिविशेष इति? उच्यते। अपायसव्व्यतया
सम्यग्दर्शनमयाय आभिनिबोधिकम्। तद्योगात्सम्यग्दर्शनम्। तत्केवलिनो नास्ति। तस्मान्न
केवली सम्यग्दर्शनी, सम्यग्दृष्टिस्तु।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य १/८/ पृ. ३१ । १०१. "मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्।" तत्त्वार्थसूत्र १/१३ ।
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