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अ०१६ / प्र०२
तत्त्वार्थसूत्र / ३४१ वाक्यों में इतना अधिक साम्य होना सिद्ध करता है कि सर्वार्थसिद्धिकार और भाष्यकार दोनों में से किसी ने दूसरे का अनुकरण किया है। किसने किया है, जब यह खोज करते हैं, तो पाते हैं कि भाष्यकार ने सर्वार्थसिद्धि का अनुकरण किया है। यह निम्नलिखित प्रमाणों से सिद्ध होता है
सर्वार्थसिद्धि में भाष्य का अनुकरण नहीं भाष्य के अंत में दिये हुए ३२ श्लोक तत्त्वार्थराजवार्तिक (१०/९/१४/पृ. ६४९६५०), जयधवलाटीका (भाग १६/पृ. १९०-१९५) तथा तत्त्वार्थसार (अधि.८/श्लोक २१-३६,४३-५४) में भी उलब्ध होते हैं। ११८ इससे पता चलता है कि ये श्लोक अत्यन्त लोकप्रिय हुए हैं। ऐसा होते हुए भी सर्वार्थसिद्धि में इन्हें उद्धृत नहीं किया गया। यदि पूज्यपाद स्वामी ने भाष्य के वाक्यों का अनुकरण किया होता, तो वे इन श्लोकों को भी अपनी टीका में अवश्य उद्धृत करते। किन्तु ऐसा नहीं किया। इससे सिद्ध है कि सर्वार्थसिद्धि के रचना के समय भाष्य उपलब्ध नहीं था।
इसी प्रकार "वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य" (त.सू./श्वे./ ५/२२) के भाष्य में भाष्यकार ने परत्वापरत्व के तीन भेद बतलाये हैं : प्रशंसाकृत, क्षेत्रकृत और कालकृत। इनमें से प्रशंसाकृत भेद का उल्लेख तत्त्वार्थराजवार्तिककार ने भी किया है। यथा-"क्षेत्रप्रशंसाकालनिमित्ते परत्वापरत्वे।---प्रशंसाकृते अहिंसादिप्रशस्तगुणयोगात् परो धर्मः, तद्विपरीतोऽधर्मोऽपर इति।" (५ / २२ / २२/ पृ. ४८१)। किन्तु सर्वार्थसिद्धि में यह भेद उपलब्ध नहीं होता। उसमें केवल क्षेत्रकृत और कालकृत भेद ही मिलते हैं-"परत्वापरत्वे क्षेत्रकृते कालकृते च स्तः।" (५/ २२ / पृ. २२३)। यह भी इस बात का प्रमाण है कि सर्वार्थसिद्धिकार के समक्ष भाष्य उपस्थित नहीं था।
भाष्य में सर्वार्थसिद्धि का अनुकरण सर्वार्थसिद्धि और भाष्य में कुछ ऐसे समान सिद्धान्त हैं, जो सर्वार्थसिद्धि से ही भाष्य में ग्रहण किये जा सकते हैं, भाष्य से सर्वार्थसिद्धि में नहीं, क्योंकि वे दिगम्बरमान्य सिद्धान्त हैं, और श्वेताम्बरमत में अमान्य हैं। यथा
११८. पं. नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास/द्वि.सं./ पृ. ५२६ ।
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