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अ० १८ / प्र० १
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४९३
का उक्त लक्षण भी स्थित था और उन्होंने अपने लक्षण में, ग्राहक पद के प्रयोगद्वारा जहाँ प्रत्यक्ष को व्यवसायात्मक ज्ञान बतलाकर धर्मकीर्ति के कल्पनापोढ विशेषण का निरसन अथवा वेधन किया है, वहाँ उनके अभ्रान्त विशेषण को प्रकारान्तर से स्वीकार भी किया है। न्यायावतार के टीकाकार सिद्धर्षि भी ग्राहकं पद के द्वारा बौद्धों ( धर्मकीर्ति) के उक्त लक्षण का निरसन होना बतलाते हैं । यथा—
" ग्राहकमिति च निर्णायकं द्रष्टव्यं, निर्णयाभावेऽर्थग्रहणायोगात् । तेन यत् ताथागतैः प्रत्यपादि 'प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तम्' (न्या. बि. ४) इति, तदपास्तं भवति । तस्य युक्तिरिक्तत्वात् । "
" इसी तरह 'त्रिरूपाल्लिङ्गाद्यदनुमेये ज्ञानं तदनुमानं' यह धर्मकीर्ति के अनुमान का लक्षण है। इसमें त्रिरूपात् पद के द्वारा लिङ्ग को त्रिरूपात्मक बतलाकर अनुमान के साधारण लक्षण को एक विशेषरूप दिया गया है। यहाँ इस अनुमानज्ञान को अभ्रान्त या भ्रान्त ऐसा कोई विशेषण नहीं दिया गया, परन्तु न्यायबिन्दु की टीका में धर्मोत्तर ने प्रत्यक्ष-लक्षण की व्याख्या करके और उसमें प्रयुक्त हुए अभ्रान्त विशेषण की उपयोगिता बतलाते हुए "भ्रान्तं ह्यनुमानम्" इस वाक्य के द्वारा अनुमान को भ्रान्त प्रतिपादित किया है । जान पड़ता है इस सबको भी लक्ष्य में रखते हुए ही सिद्धसेन ने अनुमान के " साध्याविनाभुनो ( वो) लिङ्गात्साध्यनिश्चायकमनुमानं" इस लक्षण का विधान किया है और इसमें लिङ्ग का साध्याविनाभावी ऐसा एकरूप देकर धर्मकीर्ति के त्रिरूप का - पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व तथा विपक्षासत्वरूप का निरसन किया है। साथ ही, 'तदभ्रान्तं समक्षवत्' इस वाक्य की योजना द्वारा अनुमान को प्रत्यक्ष की तरह अभ्रान्त बतलाकर बौद्धों की उसे भ्रान्त प्रतिपादन करनेवाली उक्त मान्यता का खण्डन भी किया है। इसी तरह “न प्रत्यक्षमपि भ्रान्तं प्रमाणत्वविनिश्चयात्" इत्यादि छठे पद्य में उन दूसरे बौद्धों की मान्यता का खण्डन किया है, जो प्रत्यक्ष को अभ्रान्त नहीं मानते । यहाँ लिङ्ग के इस एकरूप का और फलतः अनुमान के उक्त लक्षण का आभारी पात्रस्वामी का वह हेतुलक्षण है, जिसे न्यायावतार की २२वीं कारिका में " अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम् " इस वाक्य के द्वारा उद्धृत भी किया गया है और जिसके आधार पर पात्रस्वामी ने बौद्धों के त्रिलक्षणहेतु का कदर्थन किया था तथा त्रिलक्षणकदर्थन २१ नाम का एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही रच डाला था, जो आज अनुपलब्ध है, परन्तु उसके प्राचीन उल्लेख मिल रहे हैं। विक्रम की ८वीं - ९वीं शताब्दी के बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षित ने तत्त्वसंग्रह में त्रिलक्षणकदर्थन सम्बन्धी कुछ श्लोकों को उद्धृत किया है और उनके शिष्य कमलशील ने टीका में उन्हें " अन्यथेत्यादिना पात्रस्वामिमतमाशङ्कते" इत्यादि २१. महिमा स पात्रकेसरिगुरोः परं भवति यस्य भक्त्यासीत् ।
पद्मावती सहाया त्रिलक्षणकदर्थनं कर्त्तुम् ॥१२ ॥ मल्लिषेणप्रशस्ति (श्र. शि. ५४ ) ।
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