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अ०१८ / प्र०१
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५१९ जाता है। यह उल्लेख मूल पट्टावली की ५वीं गाथा की व्याख्या करते हुए पट्टाचार्य इन्द्रदिन्नसूरि के अनन्तर और दिन्नसूरि के पूर्व की व्याख्या में स्थित है।६२ इन्द्रदिन्नसूरि को सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध के पट्ट पर दसवाँ पट्टाचार्य बतलाने के बाद अत्रान्तरे शब्दों के साथ कालकसूरि आर्यरवपुट्टाचार्य और आर्यमंगु का नामोल्लेख समयनिर्देश के साथ किया गया है और फिर लिखा है
"वृद्धवादी पादलिप्तश्चात्र। तथा सिद्धसेनदिवाकरो येनोजयिन्यां महाकालप्रासाद-रुद्रलिङ्गस्फोटनं विधाय कल्याणमन्दिरस्तवेन श्रीपार्श्वनाथबिम्बं प्रकटीकृतं, श्रीविक्रमादित्यश्च प्रतिबोधितस्तद्राज्यं तु श्रीवीरसप्ततिवर्षशतचतुष्टये ४७० सञ्जातम्।"
__ "इसमें वृद्धवादी और पादलिप्त के बाद सिद्धसेनदिवाकर का नामोल्लेख करते हुए उन्हें उज्जयिनी महाकालमन्दिर के रुद्रलिङ्ग का कल्याणमन्दिरस्तोत्र के द्वारा स्फोटन करके श्री पार्श्वनाथ के बिम्ब को प्रकट करनेवाला और विक्रमादित्य राजा को प्रतिबोधित करनेवाला लिखा है। साथ ही विक्रमादित्य राज्य वीरनिर्वाण से ४७० वर्ष बाद हुआ निर्दिष्ट किया है, और इस तरह सिद्धसेनदिवाकर को विक्रम की प्रथम शताब्दी का विद्वान् बतलाया है, जो कि उल्लेखित विक्रमादित्य को गलतरूप में समझने का परिणाम है। विक्रमादित्य नाम के अनेक राजा हुए हैं। यह विक्रमादित्य वह विक्रमादित्य नहीं है, जो प्रचलित संवत् का प्रवतर्क है, इस बात को पं० सुखलालजी आदि ने भी स्वीकार किया है। अस्तु, तपागच्छ-पदावली की यह वृत्ति जिन आधारों पर निर्मित हुई है, उनमें प्रधान पद तपागच्छ की मुनि सुन्दरसूरिकृत गुर्वावली को दिया गया है, जिसका रचनाकाल विक्रम संवत् १४६६ है। परन्तु इस पट्टावली में भी सिद्धसेन का नामोल्लेख नहीं है। उक्त वृत्ति से कोई १०० वर्ष बाद के (वि० सं० १७३९ के बाद के) बने हुए पट्टावलीसारोद्धार ग्रन्थ में सिद्धसेनदिवाकर का उल्लेख प्रायः उन्हीं शब्दों में दिया है, जो उक्त वृत्ति में 'तथा' से 'संजातं' तक पाये जाते हैं।६४ और यह उल्लेख इन्द्रदिन्नसूरि के बाद अत्रान्तरे शब्दों के साथ मात्र कालकसूरि के उल्लेखानन्तर किया गया है-आयखपुट, आर्यमंगु, वृद्धवादी और पादलिप्त नाम के आचार्यों का कालकसूरि के अनन्तर और सिद्धसेन के पूर्व में कोई उल्लेख ही नहीं किया है। वि० सं० १७८६ से भी बाद की बनी हुई श्रीगुरुपट्टावली में भी सिद्धसेनदिवाकर
६३. देखिए , मुनि दर्शनविजय-द्वारा सम्पादित 'पट्टावलीसमुच्चय'। प्रथम भाग। ६४. "तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरोपि जातो येनोज्जयिन्यां महाकालप्रासादे रुद्रलिंगस्फोटनं कृत्वा
कल्याणमन्दिरस्तवनेन श्रीपार्श्वनाथबिम्बं प्रकटीकृत्य श्रीविक्रमादित्यराजापि प्रतिबोधितः श्रीवीरनिर्वाणात् सप्ततिवर्षाधिकशतचतुष्टये ४७०ऽतिक्रमे श्रीविक्रमादित्यराज्यं सञ्जातम्॥" १०॥ पट्टावलीसमुच्चय / पृ. १५० ।।
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