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द्वितीय प्रकरण मुख्तार जी के निर्णयों का विरोध और उसकी आधारहीनता
'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के मान्य लेखक डॉ. सागरमल जी जैन ने पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार के निर्णयों का विरोध किया है। विरोध में जो हेतु प्रस्तुत किये गये हैं, वे सब मिथ्या हैं। उनके मिथ्यात्व का प्रदर्शन एवं उनका निरसन क्रमशः श्वेताम्बरपक्ष और दिगम्बरपक्ष शीर्षकों से नीचे किया जा रहा है। श्वेताम्बरपक्ष
मुख्तार जी ने सिद्ध किया है कि कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन, न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन तथा सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन अलग-अलग व्यक्ति हैं और इनमें से प्रथम दो सिद्धसेन श्वेताम्बर हैं तथा सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन दिगम्बर। उपर्युक्त ग्रन्थलेखक ने इसे मुख्तार जी का दुराग्रहमात्र घोषित किया है। (जै.ध.या. स./ पृ.२२८-२२९)। दिगम्बरपक्ष
दुराग्रह तो उसे कहते हैं, जब बिना किसी युक्ति और प्रमाण के अपनी मान्यता थोपी जाय, प्रतिपक्षी की युक्तियों और प्रमाणों की उपेक्षा कर अपने ही मत के सही होने की रट लगाये रखी जाय। मुख्तार जी ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने सिद्धसेन के नाम से प्रसिद्ध उक्त ग्रन्थों में जो परस्पर सैद्धान्तिक विपरीतताएँ हैं, उन्हें सामने लाकर उनके कर्ताओं को भिन्न-भिन्न व्यक्ति सिद्ध किया है। इसे दुराग्रह कहेंगे, तो सयुक्तिक प्रतिपादन किसे कहेंगे? हाँ, उपर्युक्त श्वेताम्बरपक्षधर मान्य ग्रन्थ-लेखक अवश्य ही उन सैद्धान्तिक विपरीतताओं को देखकर भी नेत्रनिमीलित कर लेते हैं और केवल इस आधार पर उन्हें एक ही सिद्धसेन की कृति मानने के निर्णय पर कायम रहते हैं कि श्वेताम्बरपरम्परा में ऐसी ही मान्यता है और पं० सुखलाल जी संघवी ने प्रतिभा की समानता के आधार पर ऐसा ही माना है। सम्भवतः यह प्रवृत्ति दुराग्रह की परिभाषा में आती है। श्वेताम्बरपक्ष
दूसरा आक्षेप करते हुए उपर्युक्त ग्रन्थ लेखक कहते हैं-"आदरणीय मुख्तार जी ने एक यह विचित्र तर्क दिया है कि श्वेताम्बरप्रबन्धों में सिद्धसेन के सन्मतिसूत्र का उल्लेख नहीं है, इसलिए प्रबन्धों में उल्लेखित सिद्धसेन अन्य कोई सिद्धसेन हैं, वे सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन नहीं हैं। किन्तु मुख्तार जी ये कैसे भूल जाते हैं
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