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अ०१८ / प्र० ३
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५४९ विवक्षा भवतीति इन शब्दों में संग्रहीत किया है। इस तरह अर्पित और अनर्पित की व्याख्या में समन्तभद्र का पूरा अनुसरण किया गया है। 1
युक्त्यनुशा. न द्रव्यपर्यायपृथग्व्यवस्था द्वैयात्म्यमेकार्पणया विरुद्धम् । धर्मी च धर्मश्चमिथस्त्रिधेमौ न सर्वथा तेऽभिमतौ विरुद्वौ ॥ ४७ ॥ न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् । व्येत्युदेति विशेषात्ते सहैकत्रोदयादि सत् ॥ ५७॥
ननु इदमेव विरुद्धं तदेव नित्यं तदेवानित्यमिति । यदि नित्यं व्ययोदयाभावादनित्यताव्याघातः । अथानित्यत्वमेव स्थित्य - भावान्नित्यताव्याघात इति । नैतद्विरुद्धम् । कुत: ? (उत्थानिका)
अर्पितानर्पितसिद्धेर्नास्ति विरोधः । तद्यथा - एकस्य देवदत्तस्य पिता, पुत्रो, भ्राता भागिनेय इत्येवमादयः सम्बन्धा जनकत्वजन्यत्वदिनिमित्ता न विरुद्ध्यन्ते अर्पणाभेदात् । पुत्रापक्षेया पिता, पित्रपक्षेया पुत्र इत्येवमादिः । तथा द्रव्यमपि सामान्यार्पणया नित्यं विशेषार्पणयाऽनित्यमिति नास्ति विरोधः । (५ / ३२ ) ।
आप्तमीमांसा
सर्वार्थसिद्धि
आप्तमीमांसा
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“यहाँ पूज्यपाद ने एक ही वस्तु में उत्पाद - व्ययादि की दृष्टि से नित्य-अनित्य के विरोध की शंका उठाकर उसका जो परिहार किया है, वह सब युक्त्यनुशासन और आप्तमीमांसा की उक्त दोनों कारिकाओं के आशय को लिये हुए है, उसे ही पिता-पुत्रादि के सम्बन्धों द्वारा उदाहृत किया गया है। आप्तमीमांसा की उक्त कारिका के पूर्वार्ध तथा तृतीय चरण में कही गई नित्यता- अनित्यता- विषयक बात को 'द्रव्यमपि सामान्यार्पणया नित्यं, विशेषार्पणयाऽनित्यमिति' इन शब्दों में फलितार्थ रूप से रक्खा गया है । और युक्त्युशासन की उक्त कारिका में 'एकार्पणया' (एक ही अपेक्षा से ) विरोध बतला कर जो यह सुझाया था कि अर्पणाभेद से विरोध नहीं आता, उसे न विरुद्ध्यन्ते अर्पणाभेदात् जैसे शब्दों द्वारा प्रदर्शित किया गया है।
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द्रव्यपर्याययोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः । परिणामविशेषाच्च शक्तिमच्छक्तिभावतः ॥ ७१ ॥
संज्ञासंख्याविशेषाच्च स्वलक्षणविशेषतः । प्रयोजनादिभेदाच्च तन्नानात्वं न सर्वथा ॥ ७२ ॥
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