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सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५५१
त एते (नया) गुणप्रधानतया परस्परतन्त्राः सम्यग्दर्शनहेतवः पुरुषार्थक्रियासाधनसामर्थ्यात्तन्त्वादय इव यथोपायं विनिवेश्यमाना: पटादिसंज्ञाः स्वतन्त्राश्चासमर्थाः । निरपेक्षेषु तन्त्वादिषु पटादिकार्यं नास्तीति । (१/३३ / २४९-५० /पृ. १०४) । " स्वामी समन्तभद्र ने अपने उक्त वाक्यों में नयों के मुख्य और गुण ( गौण ) ऐसे दो भेद बतलाये हैं, निरपेक्ष नयों को मिथ्या तथा सापेक्ष नयों को वस्तु = वास्तविक (सम्यक्) प्रतिपादित किया है और सापेक्ष नयों को अर्थकृत् लिख कर फलतः निरपेक्ष नयों को नार्थकृत् अथवा कार्याशक्त (असमर्थ ) सूचित किया है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि जिस प्रकार परस्पर अनपेक्ष अंश पुरुषार्थ के हेतु नहीं, किन्तु परस्पर सापेक्ष अंश पुरुषार्थ के हेतु देखे जाते हैं और अंशों से अंशी पृथक् (भिन्न अथवा स्वतंत्र) नहीं होता, उसी प्रकार नयों को जानना चाहिये। इन सब बातों को सामने रख कर ही पूज्यपाद ने अपनी सर्वार्थसिद्धि के उक्त वाक्य की सृष्टि की जान पड़ती है । इस वाक्य में अंश अंशी की बात को तन्त्वादि- पटादि से उदाहृत करके रक्खा है। इसके गुणप्रधानतया, परस्परतंत्राः, पुरुषार्थक्रियासाधनसामर्थ्यात् और स्वतंत्रा : पद क्रमशः गुणमुख्यकल्पतः, परस्परेक्षा:-सापेक्षाः, पुरुषार्थहेतुः, निरपेक्षा:- अनपेक्षाः पदों समानार्थक हैं । और असमर्थाः तथा कार्यं नास्ति ये पद अर्थकृत् के विपरीत नार्थकृत् के आशय को लिये हुए हैं।
अ० १८ / प्र० ३
सर्वार्थसिद्धि
युक्त्यनुशा.
सर्वार्थसिद्धि
रत्नकर. श्रा..
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'इस वाक्य में पूज्यपाद ने अभाव के वस्तुधर्मत्व की सिद्धि बतलाते हुए, समन्तभद्र के युक्त्यनुशासन-गत उक्त वाक्य का शब्दानुसरण के साथ कितना अधिक अनुकरण किया है, यह बात दोनों वाक्यों को पढ़ते ही स्पष्ट हो जाती है। इनमें 'हेत्वङ्ग' और 'वस्तुव्यवस्थाङ्ग' शब्द समानार्थक हैं।
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भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्मो भावान्तरं भाववदर्हतस्ते । प्रमीयते च व्यपदिश्यते च वस्तुव्यवस्थाङ्गममेयमन्यत् ॥ ५९ ॥
अभावस्य भावान्तरत्वाद्धेत्वङ्गत्वादिभिरभावस्य वस्तुधर्मत्वसिद्धेश्च । (९ / २७) ।
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धनधान्यादिग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निःस्पृहता । परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामाऽपि ॥ ६१ ॥
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