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५५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
सर्वार्थसिद्धि
रत्नकर. श्री.
"यहाँ 'इच्छावशात् कृतपरिच्छेदः' ये शब्द 'परिमाय ततोऽधिकेषु निःस्पृहता' के आशय को लिये हुए हैं।
सर्वार्थसिद्धि
सर्वार्थसिद्धि
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" २१ वें सूत्र ('दिग्देशानर्थदण्ड') की व्याख्या में अनर्थदण्डव्रत के समन्तभद्रप्रतिपादित पांचों भेदों को अपनाते हुए उनके जो लक्षण दिये हैं, उनमें शब्द और अर्थ का कितना अधिक साम्य है, यह इस तुलना तथा आगे की दो तुलनाओं से प्रकट है। यहाँ प्राणिवध हिंसा का समानार्थक है और आदि में प्रलम्भन भी गर्भित है।
रत्नकर. श्री.
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सर्वार्थसिद्धि
अ० १८ / प्र०
धन-धान्य- क्षेत्रादीनामिच्छावशात् कृतपरिच्छेदो गृहीति पञ्चममणुव्रतम् (७ / २०) ।
रत्नकर. श्री. - वध-बन्ध-च्छेदादेद्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः । आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः ॥ ७८ ॥
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तिर्यक्क्लेशवणिज्याहिंसारम्भप्रलम्भनादीनाम् । कथाप्रसङ्गः प्रसवः स्मर्तव्यः पाप उपदेशः ॥ ७६ ॥ तिर्यक्क्लेशवाणिज्यप्राणिवधकारम्भादिषु पापसंयुक्तं वचनं पापोपदेशः । ( ७/२१/७०३/ पृ.२७८) ।
“यहाँ 'कथं स्यादिति मनसा चिन्तनम्' यह आध्यानम् पद की व्याख्या है, परेषां जय-पराजय तथा परस्वहरण यह आदि शब्द- द्वारा गृहीत अर्थ का कुछ प्रकटीकरण है और परस्वहरणादि में परकलत्रादि का अपहरण भी शामिल है।
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परेषां जयपराजयवधबन्धनाङ्गच्छेदपरस्वहरणादि कथं स्यादिति मनसा चिन्तनमपध्यानम् (७/२१ / ७०३ / पृ. २७८) ।
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क्षितिसलिलदहनपवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदम् ।
सरणं सारणमपि च प्रमादचर्यां प्रभाषन्ते ॥ ८० ॥
प्रयोजनमन्तरेण वृक्षादिच्छेदनभूमिकुट्टनसलिलसेचनाद्यवद्यकार्यं प्रमादाचरितम्। (७/२१/७०३/पृ. २७८) ।
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