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अ० १८ / प्र० ३
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५४१
" इस सूत्र की मौजूदगी में यह नहीं कहा जा सकता कि समन्तभद्र पूज्यपाद के बाद हुए हैं, और न अनेक कारणों के वश ७९ इसे प्रक्षिप्त ही बतलाया जा सकता
है।
" परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी और इन उल्लेखों की असत्यता का कोई कारण न बतलाते हुए भी, किसी गलत धारणा के वश, हाल में एक नई विचारधारा उपस्थित की गई है, जिसके जनक हैं प्रमुख श्वेताम्बर विद्वान् श्रीमान् पं० सुखलाल जी संघवी, काशी और उसे गति प्रदान करनेवाले हैं न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जी शास्त्री, काशी । पं० सुखलाल जी ने जो बात अकलंकग्रन्थत्रय के 'प्राक्कथन' में कही, उसे ही अपनाकर तथा पुष्ट बनाकर पं० महेन्द्रकुमार जी ने न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भाग की प्रस्तावना, प्रमेयकमलमार्तण्ड की प्रस्तावना और जैनसिद्धान्तभास्कर के 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' शीर्षक लेख में प्रकाशित की है। चुनाँचे पं० सुखलाल जी, न्यायकुमुदचन्द्र द्वितीय भाग के 'प्राक्कथन' में पं० महेन्द्रकुमार जी की कृति पर सन्तोष व्यक्त करते हुए और उसे अपने 'संक्षिप्त लेख का विशद और सबल भाष्य' बतलाते हुए लिखते हैं- " पं० महेन्द्रकुमार जी ने मेरे संक्षिप्त लेख का विशद और सबल भाष्य करके प्रस्तुत भाग की प्रस्तावना ( पृ. २५) में यह अभ्रान्तरूप से स्थिर किया है कि स्वामी समन्तभद्र पूज्यपाद के उत्तरवर्ती हैं।"
" इस तरह पं० सुखलाल जी को पं० महेन्द्रकुमार जी का और पं० महेन्द्रकुमार जी को पं० सुखलाल जी का इस विषय में पारस्परिक समर्थन और अभिनन्दन प्राप्त है। दोनों ही विद्वान् इस विचारधारा को बहाने में एकमत हैं। अस्तु ।
" इस नई विचारधारा का लक्ष्य है समन्तभद्र को पूज्यपाद के बाद का विद्वान् सिद्ध करना, और उसके प्रधान दो साधन हैं जो संक्षेप में निम्न प्रकार हैं
"१. विद्यानन्द की आप्तपरीक्षा और अष्टसहस्त्री के उल्लेखों पर से यह सर्वथा स्पष्ट है कि विद्यानन्द ने 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि मंगलस्तोत्र को पूज्यपादकृत सूचित किया है और समन्तभद्र को इसी आप्तस्तोत्र का 'मीमांसाकार' लिखा है, अत एव समन्तभद्र पूज्यपाद के उत्तरवर्ती ही हैं।
" २. यदि पूज्यपाद समन्तभद्र के उत्तरवर्ती होते, तो वे समन्तभद्र की असाधारण कृतियों का और खासकर सप्तभंगी का, 'जो कि समन्तभद्र की जैनपरम्परा को उस
७९.
. देखिये, 'समन्तभद्र का समय और डॉ० के. बी. पाठक' नाम का मेरा वह लेख जो १६ जून- १ जुलाई सन् १९३४ के 'जैन जगत्' (पृ. ९ से २३) में प्रकाशित हुआ है अथवा "Samantabhadra's date and Dr. Pathak, Annals of B.O.R.I., vol. XV, Pts. I-II, PP. 67-88.
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