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तृतीय प्रकरण सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र का प्रभाव पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने प्रस्तुत अध्याय के प्रथम प्रकरण में उद्धृत अपने लेख के शीर्षक क्र.७.२ वाले अनुभाग में आचार्य समन्तभद्र को पूज्यपादस्वामी से पूर्ववर्ती सिद्ध करते हुए लिखा है कि पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र का स्पष्ट प्रभाव है। इसे उन्होंने 'सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र का प्रभाव' नामक सम्पदकीयलेख में स्पष्ट किया है। वह लेख 'अनेकान्त' (मासिक) के वर्ष ५, किरण १०११, नवम्बर-दिगम्बर, १९४३ ई० के अंक (पृ. ३४५-३५२) में प्रकाशित हुआ था। 'जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश' (प्रथम खण्ड/ पृ. ३२३-३३९) में भी वह संगृहीत है। उसे यहाँ यथावत् उद्धृत किया जा रहा है।
लेख सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र का प्रभाव
पं० जुगलकिशोर मुख्तार, सम्पादक- अनेकान्त' "सर्वार्थसिद्धि आचार्य उमास्वाति (गृध्रपिच्छाचार्य) के तत्त्वार्थसूत्र की प्रसिद्ध प्राचीन टीका है और देवनन्दी अपरनाम पूज्यपाद आचार्य की खास कृति है, जिनका समय आमतौर पर ईसा की पाँचवीं और वि० की छठी शताब्दी माना जाता है। दिगम्बर समाज की मान्यतानुसार आ० पूज्यपाद स्वामी समन्तभद्र के बाद हुए हैं, यह बात पट्टावलियों से ही नहीं, किन्तु अनेक शिलालेखों से भी जानी जाती है। श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० ४० (६४) में आचार्यों के वंशादिक का उल्लेख करते हुए समन्तभद्र के परिचय-पद्य (९) के बाद 'ततः' (तत्पश्चात्) शब्द लिखकर 'यो देवनन्दिप्रथमाभिधानः' इत्यादि पद्यों (१०-११) के द्वारा पूज्यपाद का परिचय दिया है, और नं० १०८ (२५८) के शिलालेख में समन्तभद्र के अनन्तर पूज्यपाद के परिचय का जो प्रथम पद्य८ दिया है उसी में ततः शब्द का प्रयोग किया है, और इस तरह पर पूज्यपाद को समन्तभद्र के बाद का विद्वान् सूचित किया है। इसके सिवाय, स्वयं पूज्यपाद ने अपने जैनेन्द्र व्याकरण के निम्न सूत्र में समन्तभद्र के मत का उल्लेख किया है-"चतुष्टयं समन्तभद्रस्य।" (५/४/१६८)।
७८. श्रीपूज्यपादो धृतधर्मराज्यस्ततः सुराधीश्वरपूज्यपादः।
यदीयवैदुष्यगुणानिदानीं वदन्ति शास्त्राणि तदुद्धृतानि॥ १५ ॥
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