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५३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८ / प्र०२ जी का यह निष्कर्ष युक्ति और प्रमाण से सिद्ध होने के कारण विचित्र नहीं है, अपितु बिलकुल बुद्धिगम्य और सीधासादा है। श्वेताम्बरपक्ष
मुख्तार जी के आलोचक विद्वान् का एक तर्क यह है कि "श्वेताम्बर आचार्यों ने यद्यपि सिद्धसेन के अभेदवाद का खण्डन किया है और उन्हें आगमों की अवमानना करने पर दण्डित किये जाने का उल्लेख भी किया है, किन्तु किसी ने भी उन्हें अपने से भिन्न परम्परा या सम्प्रदाय का नहीं बताया है। श्वेताम्बरपरम्परा के विद्वान् उन्हें मतभिन्नता के बावजूद भी अपनी ही परम्परा का आचार्य प्राचीन काल से मानते आ रहे हैं। श्वेताम्बरग्रन्थों में उन्हें दण्डित करने की जो कथा प्रचलित है, वह भी यही सिद्ध करती है कि वे सचेलधारा में ही दीक्षित हुए थे, क्योंकि किसी आचार्य को दण्ड देने का अधिकार अपनी ही परम्परा के व्यक्ति को होता है, अन्य परम्परा के व्यक्ति को नहीं। अतः सिद्धसेन दिगम्बरपरम्परा के आचार्य थे, यह किसी भी स्थिति में सिद्ध नहीं होता।" (जै.ध.या.स./पृ. २२७)। दिगम्बरपक्ष
दिगम्बराचार्य भी सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को अपनी ही परम्परा का मानते आ रहे हैं। और प्रबन्धों के अनुसार जिन सिद्धसेन को आगमों का संस्कृत में रूपान्तरण करने का विचार प्रकट करने से बारह वर्ष के लिए श्वेताम्बरसंघ से बहिष्कृत कर दिया था, वे सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन नहीं थे, अपितु कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन थे, वे श्वेताम्बर ही थे। उन्हें ही निश्चयद्वात्रिंशिका में श्वेताम्बरागम-विरुद्ध प्रतिपादन करने से उनके ही सम्प्रदाय के किसी असहिष्णु विद्वान् ने द्वेष्यश्वेतपट (शत्रु माने जाने योग्य श्वेताम्बर) कहा था-"द्वेष्यश्वेतपटसिद्धसेनाचार्यस्य कृतिः निश्चयद्वात्रिंशिकैकोनविंशतिः।" ७७ यह पुष्पिकावाक्य इसी द्वात्रिंशिका के अन्त में अंकित है। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि यही सिद्धसेन अर्थात् प्रबन्धों में वर्णित द्वात्रिंशिकाओं और न्यायावतार के कर्ता तथा वृद्धवादी के शिष्य सिद्धसेन ही द्वेष्य और दण्डनीय होते हुए भी श्वेतपट (श्वेताम्बर) थे, सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन नहीं। अतः यह सर्वथा मान्य है कि उपर्युक्त प्रबन्धग्रन्थवर्णित द्वात्रिंशिकाकार, वृद्धवादी के शिष्य, सिद्धसेन दिगम्बरपरम्परा के आचार्य किसी भी स्थिति में नहीं थे। इसी तरह यह भी सर्वथा सत्य है कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन किसी भी तरह श्वेताम्बरपरम्परा के आचार्य नहीं थे, अपितु दिगम्बरपरम्परा के ही आचार्य थे। ७६. देखिए , पुरातन-जैनवाक्य-सूची / प्रस्ता. / पृ. १३३, १६८-१६८। ७७. देखिए , पुरातन-जैनवाक्य-सूची / प्रस्ता. / पृ. १४१ ।
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