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५२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
८.७. श्वेताम्बराचार्यों द्वारा सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की निन्दा
मुनि जिनविजय जी ने 'सिद्धसेनदिवाकर और स्वामी समन्तभद्र' नामक लेख में ७३ उनके इस विचारभेद का उल्लेख करते हुए लिखा है
"सिद्धसेन जी के इस विचारभेद के कारण उस समय के सिद्धान्त-ग्रन्थ- पाठी और आगमप्रवण आचार्यगण उनको तर्कम्मन्य जैसे तिरस्कार - व्यञ्जक विशेषणों से अलंकृत कर उनके प्रति अपना सामान्य अनादर - भाव प्रकट किया करते थे ।"
अ०१८ / प्र० १
"इस (विशेषावश्यक) भाष्य में क्षमाश्रमण (जिनभद्र) जी ने दिवाकर जी के उक्त विचारभेद का खूब ही खण्डन किया है और उनको आगम-विरुद्ध-भाषी बतलाकर उनके सिद्धान्त को अमान्य बतलाया है । "
"सिद्धसेनगणी ने 'एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः' (१ / ३१) इस सूत्र की व्याख्या में दिवाकर जी के विचारभेद के ऊपर अपने ठीक वाग्बाण चलाये हैं। गणी जी के कुछ वाक्य देखिये - " यद्यपि केचित्पण्डिम्मन्याः सूत्रान्यथाकारमर्थ - माचक्षते तर्कबलानुबिद्धबुद्धयो वारंवारेणोपयोगो नास्ति, तत्तु न प्रमाणयामः, यत आम्नाये भूयांसि सूत्राणि वारंवारेणोपयोगं प्रतिपादयन्ति । " ( पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता./पृ.१६६) । ८.८. दिगम्बरसाहित्य में सन्मतिसूत्रकार का गौरवपूर्वक स्मरण
" दिगम्बरसाहित्य में ऐसा एक भी उल्लेख नहीं, जिसमें सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन के प्रति अनादर अथवा तिरस्कार का भाव व्यक्त किया गया हो । सर्वत्र उन्हें बड़े ही गौरव के साथ स्मरण किया गया है, जैसा कि ऊपर उद्धृत हरिवंशपुराणादि के कुछ वाक्यों से प्रकट है। अकलङ्कदेव ने उनके अभेदवाद के प्रति अपना मतभेद व्यक्त करते हुए किसी भी कटु शब्द का प्रयोग नहीं किया, बल्कि बड़े ही आदर के साथ लिखा है कि " यथा हि असद्भूतमनुपदिष्टं च जानाति तथा पश्यति किमत्र भवतो हीयते" अर्थात् केवली (सर्वज्ञ) जिस प्रकार असद्भूत और अनुपदिष्ट को जानते हैं, उसी प्रकार उनको देखते भी हैं, इसके मानने में आपकी क्या हानि होती है? वास्तविक बात तो प्रायः ज्यों की त्यों एक ही रहती है। अकलङ्कदेव के प्रधान टीकाकार आचार्य श्री अनन्तवीर्य जी ने सिद्धिविनिश्चय की टीका में " असिद्धः सिद्धसेनस्य विरुद्धो देवनन्दिनः । द्वेधा समन्तभद्रस्य हेतुरेकान्तसाधने ॥" इस कारिका की व्याख्या करते हुए सिद्धसेन को महान् आदर - सूचक भगवान् शब्द के साथ उल्लेखित किया है और जब उनके किसी स्वयूथ्य ने (स्वसम्प्रदाय के विद्वान् ने ) यह आपत्ति की कि "सिद्धसेन ने एकान्त के साधन में प्रयुक्त हेतु को कहीं भी असिद्ध नहीं बतलाया
७३. जैन साहित्य संशोधक / भाग १ / अंक १ / पृ. १०, ११ ।
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