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अ० १८ / प्र० १
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५२७
१४वीं गाथा में शुद्धनय का स्वरूप बतलाते हुए जब यह कहा गया है कि वह नय आत्मा को अविशेषरूप से देखता है, तब उसमें ज्ञान दर्शनोपयोग की भेद- कल्पना भी नहीं बनती और इस दृष्टि से उपयोगद्वय की अभेदवादता के बीज भी समय-सार में सन्निहित हैं, ऐसा कहना चाहिये।" (पु. जै. वा. सू./ प्रस्ता./ पृ. १६४१६५)।
८.६. सन्मतिसूत्र में श्वेताम्बरमान्य क्रमवाद का खण्डन
और वह यह कि पं०
७१
“हाँ, एक बात यहाँ और भी प्रकट कर देने की है सुखलाल जी ने 'सिद्धसेनदिवाकरना समयनो प्रश्न' नामक लेख में ' देवनन्दी पूज्यपाद को 'दिगम्बरपरम्परा का पक्षपाती सुविद्वान्' बतलाते हुए 'सन्मति' के कर्ता सिद्धसेन - दिवाकर को 'श्वेताम्बरपरम्परा का समर्थक आचार्य' लिखा है, परन्तु यह नहीं बतलाया कि वे किस रूप में श्वेताम्बरपरम्परा के समर्थक हैं । दिगम्बर और श्वेताम्बर में भेद की रेखा खींचनेवाली मुख्यतः तीन बातें प्रसिद्ध हैं - १. स्त्रीमुक्ति, २. केवलिभुक्ति (कवलाहार) और ३. सवस्त्रमुक्ति, जिन्हें श्वेताम्बरसम्प्रदाय मान्य करता और दिगम्बरसम्प्रदाय अमान्य ठहराता है। इन तीनों में से एक का भी प्रतिपादन सिद्धसेन ने अपने किसी ग्रन्थ में नहीं किया है और न इनके अलावा अलंकृत अथवा शृङ्गारित जिनप्रतिमाओं के पूजनादि का ही कोई विधान किया है, जिसके मण्डनादिक की भी सन्मति के टीकाकार अभयदेवसूरि को जरूरत पड़ी है और उन्होंने मूल में वैसा कोई खास प्रसङ्ग न होते हुए भी उसे यों ही टीका में लाकर घुसेड़ा है । ७२ ऐसी स्थिति में सिद्धसेनदिवाकर को दिगम्बरपरम्परा से भिन्न एकमात्र श्वेताम्बरपरम्परा का समर्थक आचार्य कैसे कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता। सिद्धसेन ने तो श्वेताम्बरपरम्परा की किसी विशिष्ट बात का कोई समर्थन न करके उल्टा उसके उपयोग-द्वय-विषयक क्रमवाद की मान्यता का सन्मति में जोरों के साथ खण्डन किया है और इसके लिये उन्हें अनेक साम्प्रदायिक कट्टरता के शिकार श्वेताम्बर आचार्यों का कोपभाजन एवं तिरस्कार का पात्र तक बनना पड़ा है।" (पु.जै.वा. सू. / प्रस्ता/ पृ. १६५ - १६६)।
एदं लहदि त्ति णवरि ववदेसं ' (१४४), और 'णाणं सम्मादिट्ठि दु संजमं सुत्तमंगपुव्वगयं' (४०४) नाम की गाथाओं में भी अभेदवाद के बीज संनिहित हैं । (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./ पृ. १६५) ।
७१. भारतीयविद्या / तृतीय भाग / पृ. १५४
७२. देखिए, सन्मति - तृतीयकाण्डगत गाथा ६५ की टीका (पृ. ७५४), जिसमें " भगवत्प्रतिमाया भूषणाद्यारोपणं कर्मक्षयकारणं" इत्यादि रूप से मण्डन किया गया है।
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