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५३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
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कुछ द्वात्रिंशिकाओं के कर्त्ता एक अन्य दिगम्बर सिद्धसेन और कुछ श्वेताम्बर सिद्धसेन
“कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन इन सन्मतिकार सिद्धसेन से भिन्न तथा पूर्ववर्ती दूसरे ही सिद्धसेन हैं, जैसा कि पहले व्यक्त किया जा चुका है, और सम्भवतः वे ही उज्जयिनी के महाकालमन्दिरवाली घटना के नायक जान पड़ते हैं। हो सकता है कि वे शुरू से श्वेताम्बरसम्प्रदाय में ही दीक्षित हुए हों, परन्तु श्वेताम्बर - आगमों को संस्कृत में कर देने का विचारमात्र प्रकट करने पर जब उन्हें बारह वर्ष के लिये संघबाह्य करने जैसा कठोर दण्ड दिया गया हो, तब वे सविशेषरूप से दिगम्बर साधुओं के सम्पर्क में आए हों, उनके प्रभाव से प्रभावित तथा उनके संस्कारों एवं विचारों को ग्रहण करने में प्रवृत्त हुए हों, खासकर समन्तभद्रस्वामी के जीवनवृतान्तों और उनके साहित्य का उन पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा हो और इसीलिये वे उन्हीं - जैसे स्तुत्यादिक कार्यों के करने में दत्तचित्त हुए हों। उन्हीं के सम्पर्क एवं संस्कारों में रहते हुए ही सिद्धसेन से उज्जयिनी की वह महाकालमन्दिरवाली घटना बन पड़ी हो, जिससे उनका प्रभाव चारों ओर फैल गया हो और उन्हें भारी राजाश्रय प्राप्त हुआ हो। यह सब देखकर ही श्वेताम्बरसंघ को अपनी भूल मालूम पड़ी हो, उसने प्रायश्चित्त की शेष अवधि को रद्द कर दिया हो और सिद्धसेन को अपना ही साधु तथा प्रभावक आचार्य घोषित किया हो । अन्यथा, द्वात्रिंशिकाओं पर से सिद्धसेन गम्भीर विचारक एवं कठोर समालोचक होने के साथ-साथ जिस उदार, स्वतन्त्र और निर्भय - प्रकृति के समर्थ विद्वान् जान पड़ते हैं, उससे यह आशा नहीं की जा सकती कि उन्होंने ऐसे अनुचित एवं अविवेकपूर्ण दण्ड को यों ही चुपके से गर्दन झुका कर मान लिया हो, उसका कोई प्रतिरोध न किया हो अथवा अपने लिये कोई दूसरा मार्ग न चुना हो । सम्भवतः अपने साथ किये गये ऐसे किसी दुर्व्यवहार के कारण ही उन्होंने पुराणपन्थियों अथवा पुरातनप्रेमी एकान्तियों की ( द्वा. ६ में) कड़ी आलोचनाएँ की हैं।
अ०१८ / प्र० १
"यह भी हो सकता है कि एक सम्प्रदाय ने दूसरे सम्प्रदाय की उज्जयिनीवाली घटना को अपने सिद्धसेन के लिये अपनाया हो अथवा यह घटना मूलतः काँची या काशी में घटित होनेवाली समन्तभद्र की घटना की ही एक प्रकार से कापी हो और इसके द्वारा सिद्धसेन को भी उस प्रकार का प्रभावक ख्यापित करना अभीष्ट रहा हो । कुछ भी हो, उक्त द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन अपने उदार विचार एवं प्रभावादि के कारण दोनों सम्प्रदायों में समानरूप से माने जाते हैं, चाहे वे किसी भी सम्प्रदाय में पहले अथवा पीछे दीक्षित क्यों न हुए हों। " (पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता./पृ. १६७-१६८) ।
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