________________
अ०१८/प्र०१
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५२३ किया गया है। दिवाकर के गुरु का नाम यहाँ इन्द्र दिया है, जो इन्द्रसेन या इन्द्रदत्त आदि किसी नाम का संक्षिप्तरूप अथवा एकदेश मालूम होता है। श्वेताम्बरपट्टावलियों में जहाँ सिद्धसेनदिवाकर का नामोल्लेख किया है, वहाँ इन्द्रदिन्न नामक पट्टाचार्य के बाद अत्रान्तरे जैसे शब्दों के साथ उस नाम की वृद्धि की गई है। हो सकता है कि सिद्धसेनदिवाकर के गुरु का नाम इन्द्र-जैसा होने और सिद्धसेन का सम्बन्ध आद्य विक्रमादित्य अथवा संवत्प्रवर्तक विक्रमादित्य के साथ समझ लेने की भूल के कारण ही सिद्धसेनदिवाकर को इन्द्रदिन्न आचार्य की पट्टबाह्य-शिष्यपरम्परा में स्थान दिया गया हो। यदि यह कल्पना ठीक है और उक्त पद्य में दिवाकरयतिः पद सिद्धसेनाचार्य का वाचक है, तो कहना होगा कि सिद्धसेनदिवाकर रविषेणाचार्य के पड़दादा गुरु होने से दिगम्बरसम्प्रदाय के आचार्य थे। अन्यथा, यह कहना अनुचित न होगा कि सिद्धसेन अपने जीवन में दिवाकर की आख्या को प्राप्त नहीं थे, उन्हें यह नाम अथवा विशेषण बाद को हरिभद्रसूरि अथवा उनके निकटवर्ती किसी पूर्वाचार्य ने अलङ्कार की भाषा में दिया है और इसी से सिद्धसेन के लिये उसका स्वतन्त्र उल्लेख प्राचीन साहित्य में प्रायः देखने को नहीं मिलता। श्वेताम्बरसाहित्य का जो एक उदाहरण ऊपर दिया गया है, वह रत्नशेखरसूरिकृत गुरुगुणषट्त्रिंशत्-षट्त्रिंशिका की स्वोपज्ञवृत्ति का एकवाक्य होने के कारण ५०० वर्ष से अधिक पुराना मालूम नहीं होता और इसलिये वह सिद्धसेन की दिवाकररूप में बहुत बाद की प्रसिद्धि से सम्बन्ध रखता है। आजकल तो सिद्धसेन के लिये 'दिवाकर' नाम के प्रयोग की बाढ़-सी आ रही है, परन्तु अतिप्राचीन काल में वैसा कुछ भी मालूम नहीं होता।" (पु.जे.वा.सू./प्रस्ता./पृ. १६२-१६३)।
___ "यहाँ पर एक बात और भी प्रकट कर देने की है और यह कि उक्त श्वेताम्बरप्रबन्धों तथा पट्टावलियों में सिद्धसेन के साथ उज्जयिनी के महाकालमन्दिर में लिङ्गस्फोटनादि-सम्बन्धिनी जिस घटना का उल्लेख मिलता है, उसका वह उल्लेख दिगम्बरसम्प्रदाय में भी पाया जाता है, जैसा कि सेनगण की पट्टावली के निम्न वाक्य से प्रकट है
(स्वस्ति) श्रीमदुजयिनीमहाकाल-संस्थापन-महाकाललिङ्गमहीधर-वाग्वजदण्डविष्ट्याविष्कृत-श्रीपार्वतीर्थेश्वर-प्रतिद्वन्द्व-श्रीसिद्धसेनभट्टारकाणाम्॥ १४॥"
"ऐसी स्थिति में द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन के विषय में भी सहज अथवा निश्चितरूप से यह नहीं कहा जा सकता कि वे एकान्ततः श्वेताम्बरसम्प्रदाय के थे, सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन की तो बात ही जुदी है। ८.५. दूसरी, पाँचवीं द्वात्रिंशिकाओं में युगपद्वाद एवं स्त्रीवेदी-पुरुष-मुक्ति मान्य - "परन्तु 'सन्मति' की प्रस्तावना में पं० सुखलाल जी और पण्डित बेचरदास जी ने उन्हें एकान्ततः श्वेताम्बरसम्प्रदाय का आचार्य प्रतिपादित किया है, लिखा है
Jain Education Intemational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org