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५१४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८ / प्र०१ के व्यक्तित्व और इन सब विषयों में उनकी विद्यायोग्यता एवं प्रतिभा के प्रति बहुमान रखते हुए भी स्वामी समन्तभद्र की पूर्वस्थिति और उनके अद्वितीय-अपूर्व साहित्य की पहले से मौजूदगी में मुझे इन सब उद्गारों का कुछ भी मूल्य मालूम नहीं होता और न पं० सुखलाल जी के इन कथनों में कोई सार ही जान पड़ता है कि-(क) 'सिद्धसेन का सन्मति प्रकरण जैनदृष्टि और जैन मन्तव्यों को तर्कशैली से स्पष्ट करने तथा स्थापित करनेवाला जैनवाङ्मय में सर्वप्रथम ग्रन्थ है' तथा (ख) 'स्वामी समन्तभद्र की स्वयम्भूस्तोत्र और युक्त्यनुशासन नामक ये दो दार्शनिक स्तुतियाँ सिद्धसेन की कृतियों का अनुकरण हैं।' तर्कादि-विषयों में समन्तभद्र की योग्यता और प्रतिभा किसी से भी कम नहीं, किन्तु सर्वोपरि रही है, इसी से अकलङ्कदेव और विद्यानन्दादि जैसे महान् तार्किकों-दार्शनिकों एवं वादविशारदों आदि ने उनके यश का खुला गान किया है, भगवजिनसेन ने आदिपुराण में उनके यश को कवियों, गमकों, वादियों तथा वादियों के मस्तक पर चूड़ामणि की तरह सुशोभित बतलाया है (इसी यश का पहली द्वात्रिंशिका के 'तव प्रशिष्याः प्रथयन्ति यद्यशः' जैसे शब्दों में उल्लेख है) और साथ ही उन्हें कविब्रह्मा (कवियों को उत्पन्न करनेवाला विधाता) लिखा है तथा उनके वचनरूपी वज्रपात से कुमतरूपी पर्वत खण्ड-खण्ड हो गये, ऐसा उल्लेख भी किया है। और इसलिये उपलब्ध जैनवाङ्मय में समयादिक की दृष्टि से आद्य तार्किकादि होने का यदि किसी को मान अथवा श्रेय प्राप्त है, तो स्वामी समन्तभद्र को ही प्राप्त है। उनके देवागम (आप्तमीमांसा), युक्त्यनुशासन,स्वयम्भूस्तोत्र और स्तुतिविद्या (जिनशतक) जैसे ग्रन्थ आज भी जैनसमाज में अपनी जोड़ का कोई ग्रन्थ नहीं रखते। इन्हीं ग्रन्थों को मुनि कल्याणविजय जी ने भी उन निर्ग्रन्थचूड़ामणि श्रीसमन्तभद्र की कृतियाँ बतलाया है, जिनका समय भी श्वेताम्बर-मान्यतानुसार विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी है।५५ तब सिद्धसेन को विक्रम की ५वीं शताब्दी का मान लेने पर भी समन्तभद्र की किसी कृति को सिद्धसेन की कृति का अनुकरण कैसे कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता।" (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./ पृ. १५६-१५७)। ७.६. कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन पूज्यपाद से पूर्ववर्ती
"इस सब विवेचन पर से स्पष्ट है कि पं० सुखलाल जी ने सन्मतिकार सिद्धसेन को विक्रम की पाँचवीं शताब्दी का विद्वान् सिद्ध करने के लिये जो प्रमाण उपस्थित किये हैं, वे उस विषय को सिद्ध करने के लिये बिल्कुल असमर्थ हैं। उनके दूसरे प्रमाण से जिन सिद्धसेन का पूज्यपाद से पूर्ववर्तित्व एवं विक्रम की पाँचवीं शताब्दी
५४. विशेष के लिये देखिए, 'सत्साधुस्मरण-मंगलपाठ'/ पृ. २५ से ५१। ५५. तपागच्छपट्टावली/ भाग पहला/पृ.८०।
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