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५१६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८ / प्र०१ ८.१. दिगम्बर-सेनगण के आचार्य
"दिगम्बरसम्प्रदाय में सिद्धसेन को सेनगण (संघ) का आचार्य माना जाता है और सेनगण की पट्टावली ५६ में उनका उल्लेख है। हरिवंशपुराण को शकसंवत् ७०५ में बनाकर समाप्त करनेवाले श्रीजिनसेनाचार्य ने पुराण के अन्त में दी हुई अपनी गुर्वावली में सिद्धसेन के नाम का भी उल्लेख किया है५७ और हरिवंश के प्रारम्भ में समन्तभद्र के स्मरणानन्तर सिद्धसेन का जो गौरवपूर्ण स्मरण किया है, वह इस प्रकार है
जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः।
बोधयन्ति सतां बुद्धिं सिद्धसेनस्य सूक्तयः॥ १/३०॥ "इसमें बतलाया गया है कि सिद्धसेनाचार्य की निर्मल सूक्तियाँ (सुन्दर उक्तियाँ) जगत्प्रसिद्ध बोध (केवलज्ञान) के धारक (भगवान्) वृषभदेव की निर्दोष सूक्तियों की तरह सत्पुरुषों की बुद्धि को बोधित करती हैं, विकसित करती हैं।"
"यहाँ सूक्तियों में सन्मति के साथ कुछ द्वात्रिंशिकाओं की उक्तियाँ भी शामिल समझी जा सकती हैं।
"उक्त जिनसेन-द्वारा प्रशंसित भगवज्जिनसेन ने आदिपुराण में सिद्धसेन को अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके जो महत्त्व का कीर्तन एवं जयघोष किया है, वह यहाँ खासतौर से ध्यान देने योग्य है
कवयः सिद्धसेनाद्या वयं तु कवयो मताः। मणयः पद्मरागाद्या ननु काचोऽपि मेचकः॥ १/३९॥ प्रवादि-करियूथानां केशरी नयकेशरः।
सिद्धसेन–कविर्जीयाद्विकल्प-नखराङ्करः॥ १/४२॥ "इन पद्यों में से प्रथम पद्य में भगवज्जिनसेन, जो स्वयं एक बहुत बड़े कवि हुए हैं, लिखते हैं कि 'कवि तो (वास्तव में) सिद्धसेनादिक हैं, हम तो कवि मान लिये गये हैं। (जैसे) मणि तो वास्तव में पद्मरागादि हैं, किन्तु काच भी (कभीकभी किन्हीं के द्वारा) मेचकमणि समझ लिया जाता है।' और दूसरे पद्य में यह घोषणा करते हैं कि 'जो प्रवादिरूप हाथियों के समूह के लिये विकल्परूप-नुकीले नखों से युक्त और नयरूप केशरों को धारण किये हुए केशरीसिंह हैं, वे सिद्धसेन कवि जयवन्त हों, अपने प्रवचन-द्वारा मिथ्यावादियों के मतों का निरसन करते हुए
५६. जैनसिद्धान्तभास्कर / किरण १ / पृ.३८। ५७. ससिद्धसेनोऽभय-भीमसेनको गुरू परौ तौ जिन-शान्ति-सेनकौ॥ ६६ / २९॥
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