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५१२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८/प्र०१ "इन्हीं स्वामी समन्तभद्र को मुख्यतः लक्ष्य करके उक्त द्वात्रिंशिका के अगले दो पद्य५० कहे गये जान पड़ते हैं, जिनमें से एक में उनके द्वारा अर्हन्त में प्रतिपादित उन दो-दो बातों का उल्लेख है, जो सर्वज्ञ-विनिश्चय की सूचक हैं और दूसरे में उनके प्रथित यश की मात्रा का बड़े गौरव के साथ कीर्तन किया गया है। अतः इस द्वात्रिंशिका के कर्ता सिद्धसेन भी समन्तभद्र के उत्तरवर्ती हैं। समन्तभद्र के स्वयम्भूस्तोत्र का शैलीगत, शब्दगत और अर्थगत कितना ही साम्य भी इसमें पाया जाता है, जिसे अनुसरण कह सकते हैं, और जिसके कारण इस द्वात्रिंशिका को पढ़ते हुए कितनी ही बार इसके पदविन्यासादि पर से ऐसा भान होता है मानो हम स्वयम्भूस्तोत्र पढ़ रहे हैं। उदाहरण के तौर पर स्वयम्भूस्तोत्र का प्रारंभ जैसे उपजातिछन्द में स्वयम्भुवा भूत शब्दों से होता है, वैसे ही इस द्वात्रिंशिका का प्रारम्भ भी उपजाति छन्द में स्वयम्भुवं भूत शब्दों से होता है। स्वयम्भूस्तोत्र में जिस प्रकार समन्त, संहत, गत, उदित, समीक्ष्य, प्रवादिन् , अनन्त, अनेकान्त जैसे कुछ विशेष शब्दों का मुने, नाथ, जिन, वीर जैसे सम्बोधनपदों का और १.जितक्षुल्लकवादिशासनः, २.स्वपक्षसौस्थित्यमदावलिप्ताः, ३. नैतत्समालीढपदं त्वदन्यैः, ४. शेरते प्रजाः, ५.अशेषमाहात्म्यमनीरयन्नपि, ६. नाऽसमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयः, ७.अचिन्त्यमीहितम्, आर्हन्त्यमचिन्त्यमद्भुतं, ८.सहस्राक्षः, ९.त्वद्विषः, १०.शशिरुचिशुचिशुक्ललोहितं --- वपुः, ११. स्थिता वयं जैसे विशिष्ट पद-वाक्यों का प्रयोग पाया जाता है, उसी प्रकार पहली द्वात्रिंशिका में भी उक्त शब्दों तथा सम्बोधनपदों के साथ १.प्रपञ्चितक्षुल्लकतर्कशासनैः, २.स्वपक्ष एव प्रतिबद्धमत्सराः, ३. परैरनालीढपथस्त्वयोदितः, ४.जगत्---शेरते, ५. त्वदीयमाहात्म्यविशेषसंभली---भारती, ६.समीक्ष्य-कारिणः, ७.अचिन्त्यमहात्म्यं, ८.भूतसहस्रनेत्रं, ९.त्वत्प्रतिघातनोन्मुखैः, १०. वपुः स्वभावस्थमरक्तशोणितं, ११. स्थिता वयं जैसे विशिष्ट पदवाक्यों का प्रयोग देखा जाता है, जो यथाक्रम स्वयम्भूस्तोत्रगत उक्त पदों के प्रायः समकक्ष हैं। स्वयम्भूस्तोत्र में जिस तरह जिनस्तवन के साथ जिनशासन-जिनप्रवचन तथा अनेकान्त का प्रशंसन एवं महत्त्व ख्यापन किया गया है और वीरजिनेन्द्र के शासनमाहात्म्य को "तव जिन! शासनविभव: जयति कलावपि गुणानुशासनविभवः" जैसे शब्दों द्वारा कलिकाल में भी जयवन्त बतलाया गया है, उसी तरह इस द्वात्रिंशिका में भी जिनस्तुति के साथ जिनशासनादि का संक्षेप में कीर्तन किया गया है और वीरभगवान् को सच्छासनवर्द्धमान् लिखा है।
५०. वपुः स्वभावस्थमरक्तशोणितं पराऽनुकम्पा सफलं च भाषितम्।
न यस्य सर्वज्ञ-विनिश्चयस्त्वयि द्वयं करोत्येतदसौ न मानुषः॥ १४॥ अलब्धनिष्ठाः प्रसमिद्धचेतसस्तव प्रशिष्याः प्रथयन्ति यद्यशः। न तावदप्येकसमूहसंहताः प्रकाशयेयुः परवादिपार्थिवाः॥ १५॥
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