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४९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८/प्र०१ वियुक्त और कहीं-कहीं द्वात्रिंशिका के नाम के साथ भी दी हुई है।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./पृ. १४०-१४१)।
"द्वात्रिंशिकाओं की उपर्युक्त स्थिति में यह कहना किसी तरह भी ठीक प्रतीत नहीं होता कि उपलब्ध सभी द्वात्रिंशिकाएँ अथवा २१वीं को छोड़कर बीस द्वात्रिंशिकाएँ सन्मतिकार सिद्धसेन की ही कृतियाँ हैं, क्योंकि पहली, दूसरी, पाँचवी और उन्नीसवीं ऐसी चार द्वात्रिंशिकाओं की बाबत हम ऊपर देख चुके हैं कि वे सन्मति के विरुद्ध जाने के कारण सन्मतिकार की कृतियाँ नहीं बनती। शेष द्वात्रिंशिकाएँ यदि इन्हीं चार द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेनों में से किसी एक या एक से अधिक सिद्धसेनों की रचनाएँ हैं, तो भिन्न व्यक्तित्व के कारण उनमें से कोई भी सन्मतिकार सिद्धसेन की कृति नहीं हो सकती। और यदि ऐसा नहीं है, तो उनमें से अनेक द्वात्रिंशिकाएँ सन्मतिकार सिद्धसेन की भी कृति हो सकती हैं, परन्तु हैं और अमुक अमुक हैं यह निश्चितरूप में उस वक्त तक नहीं कहा जा सकता, जब तक इस विषय का कोई स्पष्ट प्रमाण सामने न आ जाए। (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./ पृ. १४१)। ५.१०. न्यायावतार सन्मतिसूत्र से एक शताब्दी पश्चात् की रचना
"अब रही न्यायावतार की बात, यह ग्रन्थ सन्मतिसूत्र से कोई एक शताब्दी से भी अधिक बाद का बना हुआ है, क्योंकि इस पर समन्तभद्रस्वामी के उत्तरकालीन पात्रस्वामी (पात्रकेसरी) जैसे जैनाचार्यों का ही नहीं, किन्तु धर्मकीर्ति और धर्मोत्तर जैसे बौद्धाचार्यों का भी स्पष्ट प्रभाव है। डॉ० हर्मन जैकोबी के मतानुसार १९ धर्मकीर्ति ने दिग्नाग के प्रत्यक्षलक्षण२० में कल्पनापोढ विशेषण के साथ अभ्रान्त विशेषण की वृद्धि कर उसे अपने अनुरूप सुधारा था अथवा प्रशस्तरूप दिया था और इसलिये "प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तम्" यह प्रत्यक्ष का धर्मकीर्ति-प्रतिपादित प्रसिद्ध लक्षण है, जो उनके न्यायबिन्दु ग्रन्थ में पाया जाता है और जिसमें अभ्रान्त पद अपनी खास विशेषता रखता है। न्यायावतार के चौथे पद्य में प्रत्यक्ष का लक्षण, अकलङ्कदेव की तरह 'प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं' न देकर, जो "अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं ज्ञानमीदृशं प्रत्यक्षम्" दिया है और अगले पद्य में, अनुमान का लक्षण देते हुए , 'तदभ्रान्तप्रमाणत्वात्समक्षवत्' वाक्य के द्वारा उसे (प्रत्यक्ष को) 'अभ्रान्त' विशेषण से विशेषित भी सूचित किया है। उससे यह साफ ध्वनित होता है कि सिद्धसेन के सामने-उनके लक्ष्य में-धर्मकीर्ति
१९. देखिए , 'समराइच्चकहा' की जैकोबीकृत प्रस्तावना तथा न्यायावतार की डॉ. पी. एल.
वैद्यकृत प्रस्तावना। २०. "प्रत्यक्षं कल्पनापोढं नामजात्याद्यसंयुतम्।" प्रमाणसमुच्चय।
"प्रत्यक्षं कल्पनापोढं यज्ज्ञानं नामजात्यादिकल्पनारहितम्।" न्यायप्रवेश।
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