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अ०१८ / प्र०१
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५०५ "नयचक्र के उक्त विशेष परिचय से यह भी मालूम होता है कि उस ग्रन्थ में सिद्धसेन नाम के साथ जो भी उल्लेख मिलते हैं, उनमें सिद्धसेन को आचार्य
और सूरि जैसे पदों के साथ तो उल्लेखित किया है, परन्तु दिवाकर पद के साथ कहीं भी उल्लेखित नहीं किया है, तभी मुनि श्री जम्बूविजय जी की यह लिखने में प्रवृत्ति हुई है कि "आ सिद्धसेनसूरि सिद्धसेन दिवाकरज संभवतः होवा जोइये" अर्थात् यह सिद्धसेनसूरि सम्भवतः सिद्धसेनदिवाकर ही होने चाहिये, भले ही दिवाकर नाम के साथ वे उल्लेखित नहीं मिलते। उनका यह लिखना उनकी धारणा और भावना का ही प्रतीक कहा जा सकता है, क्योंकि 'होना चाहिये' का कोई कारण साथ में व्यक्त नहीं किया गया। पं० सुखलाल जी ने अपने उक्त प्रमाण में इन सिद्धसेन को दिवाकर नाम से ही उल्लेखित किया है, जो कि वस्तुस्थिति का बड़ा ही गलत निरूपण है और अनेक भूल-भ्रान्तियों को जन्म देनेवाला है। किसी विषय को विचार के लिये प्रस्तुत करनेवाले निष्पक्ष विद्वानों के द्वारा अपनी प्रयोजनादि-सिद्धि के लिये वस्तुस्थिति का ऐसा गलत चित्रण नहीं होना चाहिये। हाँ, उक्त परिचय से यह भी मालूम होता है कि सिद्धसेन नाम के साथ जो उल्लेख मिल रहे हैं, उनमें से कोई भी उल्लेख सिद्धसेनदिवाकर के नाम पर चढ़े हुए उपलब्ध ग्रन्थों में से किसी में भी नहीं मिलता है। नमूने के तौर पर जो दो उल्लेख ३७ परिचय में उद्धृत किये गये हैं, उनका विषय प्रायः शब्दशास्त्र (व्याकरण) तथा शब्दनयादि से सम्बन्ध रखता हुआ जान पड़ता है। इससे भी सिद्धसेन के उन उल्लेखों को दिवाकर के उल्लेख बतलाना व्यर्थ ठहरता है।" (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ.१५०)। ७.१. पूज्यपाद-उल्लिखित सिद्धसेन सन्मतिसूत्रकार से भिन्न एवं पूर्ववर्ती
"रही द्वितीय प्रमाणकी बात, उससे केवल इतना ही सिद्ध होता है कि तीसरी और नवमी द्वात्रिंशिका के कर्ता जो सिद्धसेन हैं, वे पूज्यपाद देवनन्दी से पहले हुए हैं। उनका समय विक्रम की पाँचवीं शताब्दी भी हो सकता है। इससे अधिक यह सिद्ध नहीं होता कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन भी पूज्यपाद देवनन्दी से पहले अथवा विक्रम की ५वीं शताब्दी में हुए हैं। इसको सिद्ध करने के लिये पहले यह सिद्ध करना होगा कि सन्मतिसूत्र और तीसरी तथा नवमी द्वात्रिंशिकाएँ तीनों एक ही सिद्धसेन की कृतियाँ हैं। और यह सिद्ध नहीं है। पूज्यपाद से पहले उपयोगद्वय के क्रमवाद
३७. "तथा च आचार्यसिद्धसेन आह
"यत्र ह्यर्थो वाचं व्यभिचरति न (ना) भिधानं तत्॥" वि. २७७ । "अस्ति-भवति-विद्यति-वर्ततयः सन्निपातषष्ठाः सत्तार्था इत्यविशेषणोक्तत्वात् सिद्धसेनसूरिणा।" वि. १६६। (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./ पृ. १५०)।
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