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अ० १८ / प्र०१
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५०३ किया है, पं० सुखलाल जी ने उनके उस उल्लेख को महत्त्व दिया है तथा सन्मतिकार से भिन्न दूसरे सिद्धसेन की सम्भावना व्यक्त की है, और वे दूसरे सिद्धसेन उन द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता हो सकते हैं, जिनमें युगपद्वाद का समर्थन पाया जाता है, इसे भी ऊपर दर्शाया जा चुका है। इस तरह जब मल्लवादी का जिनभद्र से पूर्ववर्ती होना सुनिश्चित ही नहीं है, तब उक्त प्रमाण और भी नि:सार एवं बेकार हो जाता है। साथ ही, अभयदेव का मल्लवादी को युगपद्वाद का पुरस्कर्ता बतलाना भी भ्रान्त ठहरता है।" (पु.जै.वा.सू/ प्रस्ता./पृ. १४७-१४९)।
"यहाँ पर एक बात और भी जान लेने की है और वह यह कि हाल में मुनि श्री जम्बूविजय जी ने मल्लवादी के सटीक नयचक्र का पारायण करके उसका विशेष परिचय 'श्री आत्मानन्दप्रकाश' (वर्ष ४५ / अङ्क ७) में प्रकट किया है, उस पर से यह स्पष्ट मालूम होता है कि मल्लवादी ने अपने नयचक्र में पद-पद पर वाक्यपदीय ग्रन्थ का उपयोग ही नहीं किया, बल्कि उसके कर्ता भर्तृहरि का नामोल्लेख
और भर्तृहरि के मत का खण्डन भी किया है। इन भर्तृहरि का समय इतिहास में चीनी-यात्री इत्सिङ्ग के यात्राविवरणादि के अनुसार ई० सन् ६०० से ६५० (वि० सं० ६५७ से ७०७) तक माना जाता है, क्योंकि इत्सिङ्ग ने जब सन् ६९१ में अपना यात्रावृत्तान्त लिखा तब भर्तृहरि का देहावसान हुए ४० वर्ष बीत चुके थे। और वह उस समय का प्रसिद्ध वैयाकरण था। ऐसी हालत में भी मल्लवादी जिनभद्र से पूर्ववर्ती नहीं कहे जा सकते। उक्त समयादिक की दृष्टि से वे विक्रम की प्रायः आठवीं-नवमी शताब्दी के विद्वान् हो सकते हैं और तब उनका व्यक्तित्व न्यायबिन्दु की धर्मोत्तर टीका ३३ पर टिप्पण लिखनेवाले मल्लवादी के साथ एक भी हो सकता है। इस टिप्पण में मल्लवादी ने अनेक स्थानों पर न्यायबिन्दु की विनीतदेव-कृत-टीका का उल्लेख किया है और इस विनीतदेव का समय राहुलसांकृत्यायन ने, वादन्याय की प्रस्तावना में, धर्मकीर्ति के उत्तराधिकारियों की एक तिब्बती सूची पर से ई० सन् ७७५ से ८०० (वि० सं० ८५७) तक निश्चित किया है।" (पु. जै.वा.सू./ प्रस्ता./ पृ. १४९)।
"इस सारी वस्तुस्थिति को ध्यान में रखते हुए ऐसा जान पड़ता है कि विक्रम की १४वीं शताब्दी के विद्वान् प्रभाचन्द्र ने अपने प्रभावकचरित के विजयसिंहसूरिप्रबन्ध में बौद्धों और उनके व्यन्तरों को वाद में जीतने का जो समय मल्लवादी का वीरवत्सर से ८८४ वर्ष बाद का अर्थात् विक्रम संवत् ४१४ दिया है ३४ और जिसके
३३. बौद्धाचार्य धर्मोत्तर का समय पं. राहलसांकत्यायन ने वादन्याय की प्रस्तावना में ई.स.७२५ से
७५०, (वि. सं. ७८२ से ८०७) तक व्यक्त किया है। (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ. १४९)। ३४. श्रीवीरवत्सरादथ शताष्टके चतुरशीति-संयुक्ते।
जिग्ये स मल्लवादी बौद्धांस्तव्यन्तरांश्चाऽपि॥ ८३॥
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