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४९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८/प्र०१ ठहरेंगे। चौथे, पात्रकेसरीस्वामी के हेतुलक्षण का जो उद्धरण न्यायावतार में पाया जाता है और जिसका परिहार नहीं किया जा सकता, उससे सिद्धसेन का धर्मकीर्ति के बाद होना और भी पुष्ट होता है। ऐसी हालत में न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन को असङ्ग के बाद का और धर्मकीर्ति के पूर्व का बतलाना निरापद नहीं है, उसमें अनेक विघ्नबाधाएँ उपस्थित होती हैं। फलतः न्यायावतार धर्मकीर्ति और पात्रस्वामी के बाद की रचना होने से उन सिद्धसेनाचार्य की कृति नहीं हो सकता, जो सन्मतिसूत्र के कर्ता हैं। जिन अन्य विद्वानों ने उसे अधिक प्राचीनरूप में उल्लेखित किया है वह मात्र द्वात्रिंशिकाओं, 'सन्मति' और न्यायावतार को एक ही सिद्धसेन की कृतियाँ मानकर चलने का फल है।" (पु.जै.वा.सू/ प्रस्ता./ पृ. १४१-१४४)। ___"इस तरह यहाँ तक के इस सब विवेचन पर से स्पष्ट है कि सिद्धसेन के नाम पर जो भी ग्रन्थ चढ़े हुए हैं, उनमें से सन्मतिसूत्र को छोड़कर दूसरा कोई भी ग्रन्थ सुनिश्चितरूप में सन्मतिकार की कृति नहीं कहा जा सकता, अकेला सन्मतिसूत्र ही असपत्नभाव से अभी तक उनकी कृतिरूप में स्थित है। कल को अविरोधिनी द्वात्रिंशिकाओं में से यदि किसी द्वात्रिंशिका का उनकी कृतिरूप में सुनिश्चय हो गया, तो वह भी सन्मति के साथ शामिल हो सकेगी।" (पु.जै. वा. सू./ प्रस्ता. पृ.१४४)।
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन नियुक्तिकार भद्रबाहु से उत्तरवर्ती
"अब देखना यह है कि प्रस्तुत ग्रन्थ सन्मति के कर्ता सिद्धसेनाचार्य कब हुए हैं और किस समय अथवा समय के लगभग उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की है। ग्रन्थ में निर्माणकाल का कोई उल्लेख और किसी प्रशस्ति का आयोजन न होने के कारण दूसरे साधनों पर से ही इस विषयको जाना जा सकता है और वे दूसरे साधन हैं ग्रन्थ का अन्तःपरीक्षण, उसके सन्दर्भ-साहित्य की जाँच-द्वारा बाह्य प्रभाव एवं उल्लेखादि का विश्लेषण, उसके वाक्यों तथा उसमें चर्चित खास विषयों का अन्यत्र उल्लेख, आलोचनप्रत्यालोचन, स्वीकार-अस्वीकार अथवा खण्डन-मण्डनादिक और साथ ही सिद्धसेन के व्यक्तित्व-विषयक महत्त्व के प्राचीन उद्गार। इन्हीं सब साधनों तथा दूसरे विद्वानों के इस दिशा में किये गये प्रयत्नों को लेकर मैंने इस विषय में जो कुछ अनुसंधान एवं निर्णय किया है, उसे ही यहाँ पर प्रकट किया जाता है
"१. सन्मति के कर्ता सिद्धसेन केवली के ज्ञान-दर्शनोपयोग-विषय में अभेदवाद के पुरस्कर्ता हैं, यह बात पहले (पिछले प्रकरण में) बतलाई जा चुकी है। उनके इस अभेदवाद का खण्डन इधर दिगम्बरसम्प्रदाय में सर्वप्रथम अकलंकदेव के
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