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५०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८/प्र०१ उन्होंने अपनी पञ्चसिद्धान्तिका के अन्त में, जो कि उनके उपलब्ध ग्रन्थों में अन्त की कृति मानी जाती है, अपना समय स्वयं निर्दिष्ट किया है और वह है शक संवत् ४२७ अर्थात् विक्रम संवत् ५६२। यथा
सप्ताश्विवेदसंख्यं शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ।
अर्धास्तमिते भानौ यवनपुरे सौम्यदिवसाये॥ ८॥ "जब नियुक्तिकार भद्रबाहु का उक्त समय सुनिश्चित हो जाता है, तब यह कहने में कोई आपत्ति नहीं रहती कि सन्मतिकार सिद्धसेन के समय की पूर्व सीमा विक्रम की छठी शताब्दी का तृतीय चरण है और उन्होंने क्रमवाद के पुरस्कर्ता उक्त भद्रबाहु अथवा उनके अनुसर्ता किसी शिष्यादि के क्रमवाद-विषयक कथन को लेकर ही 'सन्मति' में उसका खण्डन किया है।
___ "इस तरह सिद्धसेन के समय की पूर्व सीमा विक्रम की छठी शताब्दी का तृतीय चरण और उत्तर सीमा विक्रम की सातवीं शताब्दी का तृतीय चरण (वि० सं० ५६२ से ६६६) निश्चित होती है।" इन प्रायः सौ वर्ष के भीतर ही किसी समय सिद्धसेन का ग्रन्थकाररूप में अवतार हुआ और यह ग्रन्थ बना जान पड़ता है। (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ. १४५-१४७)।
३. "सिद्धसेन के समय-सम्बन्ध में पं० सुखलाल जी संघवी की जो स्थिति रही है, उसको ऊपर बतलाया जा चुका है। उन्होंने अपने पिछले लेख में, जो 'सिद्धसेनदिवाकरना समयनो प्रश्न' नाम से 'भारतीयविद्या' के तृतीय भाग (श्रीबहादुरसिंह जी सिंघी स्मृतिग्रन्थ) में प्रकाशित हुआ है, अपनी उस गुजराती प्रस्तावना-कालीन मान्यता को, जो 'सन्मति' के अंग्रेजी संस्करण के अवसर पर फोरवर्ड (foreword)३२ लिखे जाने के पूर्व कुछ नये बौद्धग्रन्थों के सामने आने के कारण बदल गई थी और जिसकी फोरवर्ड में सूचना की गई है, फिर से निश्चित रूप दिया है अर्थात् विक्रम की पाँचवीं शताब्दी को ही सिद्धसेन का समय निर्धारित किया है और उसी को अधिक सङ्गत बतलाया है। अपनी इस मान्यता के समर्थन में उन्होंने जिन दो प्रमाणों का उल्लेख किया है, उनका सार इस प्रकार है, जिसे प्रायः उन्हीं के शब्दों के अनुवादरूप में सङ्कलित किया गया है
"(प्रथम), जिनभद्रक्षमाश्रमण ने अपने महान् ग्रन्थ विशेषावश्यकभाष्य में, जो विक्रम संवत् ६६६ में बनकर समाप्त हुआ है, और लघुग्रन्थ विशेषणवती में सिद्धसेन
३२. फोरवर्ड के लेखकरूप में यद्यपि नाम 'दलसुख मालवणिया' का दिया हुआ है, परन्तु
उसमें दी हुई उक्त सूचना को पण्डित सुखलाल जी ने उक्त लेख में अपनी ही सूचना और अपना ही विचार-परिवर्तन स्वीकार किया है। (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./पृ. १४७)।
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