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अ०१७ / प्र०१
तिलोयपण्णत्ती / ४४९ बाहिरहेदू कहिदो णिच्छयकालो त्ति सव्वदरिसीहिं।
अब्भंतरं णिमित्तं णिय णिय दव्वेसु चेटेदि॥ ४/२८५॥ ___ अनुवाद-"सर्वज्ञदेव ने निश्चयकाल को सर्वपदार्थों के प्रवर्तने का बाह्य निमित्त कहा है। अभ्यन्तर निमित्त अपने-अपने द्रव्य में स्थित है।"
कालस्साणूभिण्णा अण्णोण्णपवेसणेण परिहीणा।
पुह पुह लोयायासे चेटुंते संचएण विणा॥ ४/२८६॥ अनुवाद-"काल के भिन्न-भिन्न अणु, एक-दूसरे में प्रवेश न करते हुए संचय के बिना लोकाकाश में पृथक्-पृथक् स्थित हैं।"
तिलोयपण्णत्ती की इन गाथाओं में काल को छह द्रव्यों के अन्तर्गत सम्पूर्ण लोकाकाश (लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश) में पृथक्-पृथक् स्थित रहनेवाला भिन्नभिन्न अणुरूप स्वतंत्र द्रव्य माना गया है, जो केवल दिगम्बर-सिद्धान्त के अनुरूप है, श्वेताम्बर और श्वेताम्बर-आगमों के अनुयायी यापनीयों के सिद्धान्त के सर्वथा विरुद्ध है। अतः यह तिलोयपण्णत्ती के दिगम्बरग्रन्थ होने का स्पष्ट प्रमाण है।
मोक्षमार्ग की चतुर्दश-गुणस्थानात्मकता तिलोयपण्णत्ती में मोक्षमार्ग को चतुर्दश-गुणस्थानात्मक माना गया है अर्थात् यह माना गया है कि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप आध्यात्मिक विकास जब चौदहवें गुणस्थानरूप चरम अवस्था में पहुँचता है, तब आत्मा को सिद्धत्व (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। किस क्षेत्र का मनुष्य किस गुणस्थान तक आध्यात्मिक विकास कर सकता है, इसका निरूपण आचार्य यतिवृषभ तिलोयपण्णत्ती की अधोलिखित गाथाओं में करते हैं
पण-पण-अजाखंडे भरहेरावदम्मि मिच्छगुणठाणं।
अवरे वरम्मि चोद्दस-परियंत कआइ दीसंति॥ ४/२९८०॥ अनुवाद-"भरत एवं ऐरावत क्षेत्र के भीतर पाँच-पाँच आर्यखण्डों में जघन्यरूप से मिथ्यात्व गुणस्थान और उत्कृष्टरूप से कदाचित् चौदह गुणस्थान तक पाये जाते हैं।"
पंचविदेहे सट्ठि-समण्णिद-सद-अजखंडए अवरे।
छग्गुणठाणे तत्तो चोद्दस-परियंत दीसंति॥ ४/२९८१॥ अनुवाद-"पाँच विदेहक्षेत्रों के भीतर एक सौ साठ आर्यखण्डों में जघन्यरूप से छह गुणस्थान और उत्कृष्ट रूप से चौदह गुणस्थान तक पाये जाते हैं।"
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