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अ०१७ / प्र०१
तिलोयपण्णत्ती / ४५१ किन्तु तिलोयपण्णत्ती का कथन है कि भगवान् के उपदेश की भाषा में अठारह महाभाषाएँ, सात सौ क्षुद्रभाषाएँ तथा समस्त संज्ञी जीवों की अक्षर-अनक्षरात्मक भाषाएँ १९ गर्भित होती हैं
अट्ठरस महाभासा खुल्लयभासा सयाइ सत्त तहा। अक्खरअणक्खरप्पय सण्णी जीवाण सयलभासाओ॥ ४/९१०॥ एदासिं भासाणं तालुव-दंतोट्ठ-कंठ-वावारे।
परिहरिय एक्ककालं भव्वजणे दिव्वभासित्तं॥ ४/९११॥ __ अनुवाद-"भगवान् अठारह महाभाषाओं, सात सौ क्षुद्रभाषाओं तथा संज्ञी जीवों की जो और भी अक्षर-अनक्षरात्मक भाषाएँ हैं, उनमें तालु , दन्त, ओष्ठ और कण्ठ के व्यापार से रहित होकर एक ही समय भव्यजनों को उपदेश देते हैं।"
इस तरह तिलोयपण्णत्तीकार यह नहीं मानते कि भगवान् महावीर के उपदेश की भाषा अर्धमागधी थी। अर्धमागधी तो अठारह महाभाषाओं और सात सौ क्षुद्रभाषाओं में से एक रही होगी। और वस्तुतः भगवान् इन सभी भाषाओं में उपदेश नहीं देते थे, अपितु उनके मुख से निकलनेवाली भाषा या ध्वनि इन सब भाषाओं में परिणमित हो जाती थी।२० यह परिणमन केवलज्ञान के ११ अतिशयों में से एक है।२१ और उनके मुख से निकलनेवाली भाषा कौन सी थी, इसके विषय में तिलोयपण्णत्तीकार ने कुछ भी नहीं कहा है। उन्होंने बस यही कहा है कि भगवान् उपर्युक्त सभी भाषाओं में उपदेश देते हैं। यह कथन श्वेताम्बरों और उनके आगमों को प्रमाण माननेवाले यापनीयों के मत के विरुद्ध हैं। अतः यह तिलोयपण्णत्ती के दिगम्बरीय ग्रन्थ होने का अन्यतम प्रमाण है। .
१४ चामर-प्रतिहार्य में चामरों की बहुलता श्वेताम्बर विद्वान् श्री मधुसूदन ढाकी और श्री जितेन्द्र शाह ने मानतुङ्गाचार्य और उनके स्तोत्र नामक पुस्तिका में इस ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि अष्ट प्रतिहार्यों
१९. क- "तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषास्वभावकम्।" स्वयम्भूस्तोत्र / श्लोक ९७। . ख- "केरिसा सा? सव्वभासासरूवा।" जयधवला / क.पा./ भाग १/ गा.१/ पृ.११५। २०. महापुराण (आदिपुराण) २३/६९-७४ (जयधवला /क.पा./ भा.१ / गा.१/विशेषार्थ / पृ.११६
११७)। २१. तिलोयपण्णत्ती ४/९१५ ।
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