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अ०१८ / प्र० १
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४७३
श्वेताम्बर मान्यता के प्रतिकूल हैं, क्योंकि श्वेताम्बरीय आचाराङ्गनिर्युक्ति में वर्द्धमान को छोड़कर शेष २३ तीर्थंकरों के तप:कर्म को निरुपसर्ग वर्णित किया है । ५ इससे भी प्रस्तुत कल्याणमन्दिर दिगम्बरकृति होनी चाहिये ।" (पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता. / पृ. १२७-१२८) ।
" प्रमुख श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल जी और पं० बेचरदास जी ने ग्रंथ की गुजराती प्रस्तावना में ६ विविधतीर्थकल्प को छोड़कर शेष पाँच प्रबन्धों का सिद्धसेनविषयक सार बहुपरिश्रम के साथ दिया है और उसमें कितनी ही परस्परविरोधी तथा मौलिक मतभेद की बातों का भी उल्लेख किया है और साथ ही यह निष्कर्ष निकाला है कि “सिद्धसेन दिवाकर का नाम मूल में कुमुदचंद्र नहीं था, होता तो दिवाकरविशेषण की तरह यह श्रुतिप्रिय नाम भी किसी-न-किसी प्राचीन ग्रंथ में सिद्धसेन की निश्चित कृति अथवा उसके उद्धृत वाक्यों के साथ जरूर उल्लेखित मिलता । प्रभावकचरित से पहले के किसी भी ग्रंथ में इसका उल्लेख नहीं है । और यह कि कल्याणमन्दिर को सिद्धसेन की कृति सिद्ध करने के लिये कोई निश्चित प्रमाण नहीं है, वह सन्देहास्पद है।" ऐसी हालत में कल्याणमन्दिर की बात को यहाँ छोड़ ही दिया जाता है । प्रकृतविषय के निर्णय में वह कोई विशेष साधक-बाधक भी नहीं है । " (पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता/ पृ. १२८) ।
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न्यायावतार एवं ३२ द्वात्रिंशिकाओं का परिचय
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'अब रही द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, सन्मतिसूत्र और न्यायावतार की बात । न्यायावतार एक ३२ श्लोकों का प्रमाण-नय-विषयक लघुग्रंथ है, जिसके आदि - अन्त में कोई मंगलाचरण तथा प्रशस्ति नहीं है, जो आमतौर पर श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेन दिवाकर की कृति माना जाता है और जिस पर श्वे० सिद्धर्षि (सं० ९६२) की विवृति और उस विवृति पर देवभद्र की टिप्पणी उपलब्ध है और ये दोनों टीकाएँ डॉ० पी० एल० वैद्य के द्वारा सम्पादित होकर सन् १९२८ में प्रकाशित हो चुकी हैं। सन्मतिसूत्र का परिचय ऊपर दिया ही जा चुका है। उस पर अभयदेवसूरि की २५ हजार श्लोक - परिमाण जो संस्कृतटीका है, वह उक्त दोनों विद्वानों के द्वारा सम्पादित होकर संवत् १९८७
५. सव्वेसिं तवो कम्मं निरुवसग्गं तु वण्णियं जिणाणं ।
नवरं
तु माण्स्ससोवसग्गं मुणेयव्वं ॥ २७६ ॥
६. यह प्रस्तावना ग्रन्थ के गुजराती अनुवाद - भावार्थ के साथ सन् १९३२ में प्रकाशित हुई है और ग्रन्थ का यह गुजराती संस्करण बाद को अंग्रेजी में अनुवादित होकर 'सन्मतितर्क' के नाम से सन् १९३९ में प्रकाशित हुआ है।
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