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अ० १८ / प्र०१
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४८७ ५.५. सन्मतिसूत्र मतिज्ञान-श्रुतज्ञान-भेदसमर्थक
__"यह सब कथन सन्मतिसूत्र के विरुद्ध है, क्योंकि उसमें श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान दोनों को अलग ज्ञानों के रूप में स्पष्टरूप से स्वीकार किया गया है, जैसा कि उसके द्वितीय काण्डगत१७ निम्न वाक्यों से प्रकट है
मणपज्जवणाणंतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो॥ ३॥ जेण मणोविसयगयाण दंसणं णस्थि दव्वजायाणं। तो मणपजवणाणं णियमा णाणं तु णिहिटुं॥ १९॥ मणपजवणाणं दंसणं ति तेणेह होइ ण य जुत्तं। भण्णइ णाणं णोइंदियम्मि ण घडादयो जम्हा॥ २६॥ मइ-सुय-णाणणिमित्तो छडमत्थे होइ अत्थउवलंभो। एगयरम्मि वि तेसिं ण दंसणं दंसणं कत्तो?॥ २७॥ जं पच्चक्खग्गहणं णं इंति सुयणाण-सम्मिया अत्था।
तम्हा दंसणसद्दो ण होइ सयले वि सुयणाणे॥ २८॥ ५.६. न्यायावतार मतिज्ञान-श्रुतज्ञानादि-भेदसमर्थक
"ऐसी हालत में यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि निश्चयद्वात्रिंशिका (१९) उन्हीं सिद्धसेनाचार्य की कृति नहीं है, जो कि सन्मतिसूत्र के कर्ता हैं। दोनों के कर्ता सिद्धसेन नाम की समानता को धारण करते हुए भी एक दूसरे से एकदम भिन्न हैं। साथ ही, यह कहने में भी कोई सङ्कोच नहीं होता कि न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन भी निश्चयद्वात्रिंशिका के कर्ता से भिन्न हैं, क्योंकि उन्होंने श्रुतज्ञान के भेद को स्पष्टरूप से माना है और उसे अपने ग्रन्थ में शब्दप्रमाण अथवा आगम (श्रुत-शास्त्र) प्रमाण के रूप में रक्खा है, जैसा कि न्यायावतार के निम्न वाक्यों से प्रकट है
दृष्टेष्टाऽव्याहताद्वाक्यात्परमार्थाऽभिधायिनः। तत्त्वग्राहितयोत्पन्नं मानं शाब्दं प्रकीर्तितम् ॥ ८॥ आप्तोपज्ञमनुल्लंध्यमदृष्टेष्टविरोधकम्। तत्त्वोपदेशकृत्सार्वं शास्त्रं कापथ-घट्टनम्॥ ९॥८ नयानामेकनिष्ठानां प्रवृत्तेः श्रुतवर्मनि।
सम्पूर्णार्थविनिश्चायि स्याद्वादश्रुतमुच्यते॥ ३०॥ १७. तृतीयकाण्ड में भी आगमश्रुतज्ञान को प्रमाणरूप में स्वीकार किया है। १८. यह पद्य मूल में स्वामी समन्तभद्रकृत 'रत्नकरण्ड' का है, वहीं से उद्धृत किया गया है।
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