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अ० १८ / प्र०१
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४८५ खण्डन किया है, जिसे पादटिप्पणी में निम्न प्रकार से उद्धृत किया है
___ "तज्ज्ञानदर्शनयोः क्रमवृत्तौ हि सर्वज्ञत्वं कादाचित्कं स्यात्। कुतस्तत्सिद्धिरिति चेत् सामान्य-विशेष-विषययोर्विगतावरणयोरयुगपत्प्रतिभासायोगात् प्रतिबन्धकान्तराऽभावात्।"
"ऐसी हालत में इन तीन द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता वे सिद्धसेन प्रतीत नहीं होते, जो सन्मतिसूत्र के कर्ता और अभेदवाद के प्रस्थापक अथवा पुरस्कर्ता हैं, बल्कि वे सिद्धसेन जान पड़ते हैं, जो केवली के ज्ञान और दर्शन का युगपत् होना मानते थे। ऐसे एक युगपद्वादी सिद्धसेन का उल्लेख विक्रम की ८वीं-९वीं शताब्दी के विद्वान् आचार्य हरिभद्र ने अपनी नन्दीवृत्ति में किया है। नन्दीवृत्ति में 'केई भणंति जुगवं जाणइ पासइ य केवली नियमा' इत्यादि दो गाथाओं को उद्धृत करके, जो कि जिन-भद्रक्षमाश्रमण के विशेषणवती ग्रन्थ की हैं, उनकी व्याख्या करते हुए लिखा है
"केचन सिद्धसेनाचार्यादयः भणंति, किं? 'युगपद्' एकस्मिन्नेव काले जानाति पश्यति च, कः? केवली, न त्वन्यः, नियमात् नियमेन।"
"नन्दीसूत्र के ऊपर मलयगिरिसूरि ने जो टीका लिखी है, उसमें उन्होंने भी युगपद्वाद का पुरस्कर्ता सिद्धसेनाचार्य को बतलाया है। परन्तु उपाध्याय यशोविजय ने, जिन्होंने सिद्धसेन को अभेदवाद का पुरस्कर्ता बतलाया है, ज्ञानबिन्दु में यह प्रकट किया है कि "नन्दीवृत्ति में सिद्धसेनाचार्य का जो युगपत् उपयोगवादित्व कहा गया है, वह अभ्युपगमवाद के अभिप्राय से है, न कि स्वतन्त्रसिद्धान्त के अभिप्राय से, क्योंकि क्रमोपयोग और अक्रम (युगपत्) उपयोग के पर्यनुयोगाऽनन्तर ही उन्होंने सन्मति में अपने पक्ष का उद्भावन किया है,"१६ जो कि ठीक नहीं है। मालूम होता है उपाध्याय जी की दृष्टि में सन्मति के कर्ता सिद्धसेन ही एकमात्र सिद्धसेनाचार्य के रूप में रहे हैं और इसी से उन्होंने सिद्धसेन-विषयक दो विभिन्न वादों के कथनों से उत्पन्न हुई असङ्गति को दूर करने का यह प्रयत्न किया है, जो ठीक नहीं है। चुनाँचे पं० सुखलाल जी ने उपाध्याय जी के इस कथन को कोई महत्त्व न देते हुए और हरिभद्र जैसे बहुश्रुत आचार्य के इस प्राचीनतम उल्लेख की महत्ता का अनुभव करते हुए ज्ञानबिन्दु के परिचय (पृ.६०) में अन्त को यह लिखा है कि "समान नामवाले अनेक आचार्य होते आए हैं। इसलिये असम्भव नहीं कि सिद्धसेनदिवाकर से भिन्न कोई दूसरे भी सिद्धसेन हुए हों, जो कि युगपद्वाद के समर्थक हुए हों या माने जाते हों।" वे
१६. "यत्तु युगपदुपयोगवादित्वं सिद्धसेनाचार्याणां नन्दिवृत्तावुक्तं तदभ्युपगमवादाभिप्रायेण, न तु
स्वतन्त्रसिद्धान्ताभिप्रायेण, क्रमाऽक्रमोपयोगद्वयपर्यनुयोगानन्तरमेव स्वपक्षस्य सम्मती उद्भावितत्वादिति द्रष्टव्यम्।" ज्ञानबिन्दु / पृ. ३३।
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