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४८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८ / प्र०१ ५.२. प्रथम-द्वितीय-पंचम द्वात्रिंशिकाएँ युगपद्वादप्रतिपादक
"पहली, दूसरी और पाँचवीं द्वात्रिंशिकाएँ युगपद्वाद की मान्यता को लिये हुए हैं, जैसा कि उनके निम्न वाक्यों से प्रकट है
जगन्नकावस्थं युगपदखिलाऽनन्तविषयं यदेतत्प्रत्यक्षं तव न च भवान् कस्यचिदपि। अनेनैवाऽचिन्त्यप्रकृतिरससिद्धेस्तु विदुषां समीक्ष्यैतद्वारं तव गुण-कथोत्का वयमपि॥ १/३२॥
नाऽर्थान् विवित्ससि न वेत्स्यसि नाऽप्यवेत्सीनं ज्ञातवानसि न तेऽच्युत! वेद्यमस्ति। त्रैकाल्य-नित्य-विषमं युगपच्च विश्वं पश्यस्यचिन्त्य-चरिताय नमोऽस्तु तुभ्यम्॥ २/३०॥
अनन्तमेकं युगपत् त्रिकालं शब्दादिभिर्निप्रतिघातवृत्ति॥ ५/२१॥ दुरापमाप्तं यदचिन्त्य-भूति-ज्ञानं त्वया जन्म-जराऽन्तकर्तृ।
तेनाऽसि लोकानभिभूय सर्वान्सर्वज्ञ! लोकोत्तमतामुपेतः॥ ५/२२॥ "इन पद्यों में ज्ञान और दर्शन के जो भी त्रिकालवर्ती अनन्त विषय हैं, उन सबको युगपत् जानने-देखने की बात कही गई है अर्थात् त्रिकालगत विश्व के सभी साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त, सूक्ष्म-स्थूल, दृष्ट-अदृष्ट, ज्ञात-अज्ञात, व्यवहितअव्यवहित आदि पदार्थ अपनी-अपनी अनेक-अनन्त अवस्थाओं अथवा पर्यायों-सहित वीरभगवान् के युगपत् प्रत्यक्ष हैं, ऐसा प्रतिपादन किया गया है। यहाँ प्रयुक्त हुआ युगपत् शब्द अपनी खास विशेषता रखता है और वह ज्ञान-दर्शन के यौगपद्य का . उसी प्रकार द्योतक है, जिस प्रकार स्वामी समन्तभद्रप्रणीत आप्तमीमांसा (देवागम) के "तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम्" (का. १०१) इस वाक्य में प्रयुक्त हुआ युगपत् शब्द, जिसे ध्यान में लेकर और पादटिप्पणी में पूरी कारिका को उद्धृत करते हुए पं० सुखलाल जी ने ज्ञानबिन्दु के परिचय में लिखा है-"दिगम्बराचार्य समन्तभद्र ने भी अपनी आप्तमीमांसा में एकमात्र यौगपद्यपक्ष का उल्लेख किया है।" साथ ही, यह भी बतलाया है कि भट्ट अकलङ्क ने इस कारिकागत अपनी अष्टशती व्याख्या में यौगपद्य-पक्ष का स्थापन करते हुए क्रमिकपक्ष का, संक्षेप में पर स्पष्टरूप में,
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