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अ०१८ / प्र०१
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४८९ है कि वे उक्त द्वात्रिंशिका के कर्ता नहीं हैं, उसके कर्ता कोई दूसरे ही सिद्धसेन होने चाहिये। उपाध्याय यशोविजय जी ने 'द्वात्रिंशिका' का 'न्यायावतार' और 'सन्मति' के साथ जो उक्त विरोध बैठता है, उसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा।
"यहाँ इतना और भी जान लेना चाहिये कि श्रुत की अमान्यतारूप इस द्वात्रिंशिका के कथन का विरोध न्यायावतार और सन्मति के साथ ही नहीं है, बल्कि प्रथम द्वात्रिंशिका के साथ भी है, जिसके 'सुनिश्चितं नः' इत्यादि ३०वें पद्य में 'जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविपुषः' जैसे शब्दों द्वारा अर्हत्प्रवचनरूप श्रुत को प्रमाण माना गया है। (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./ पृ.१३७-१३९)। ५.७. निश्चयद्वात्रिंशिका में ज्ञानदर्शनचारित्र व्यस्तरूप से मोक्षमार्ग, सन्मतिसूत्र में
समस्तरूप से
"निश्चयद्वात्रिंशिका की दो बातें और भी यहाँ प्रकट कर देने की हैं, जो सन्मति के साथ स्पष्ट विरोध रखती हैं और वे निम्न प्रकार हैं
ज्ञान-दर्शन-चारित्राण्युपायाः शिवहेतवः।
अन्योऽन्य-प्रतिपक्षत्वाच्छुद्धावगम-शक्तयः॥ १॥ "इस पद्य में ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र को मोक्ष-हेतुओं के रूप में तीन उपाय (मार्ग) बतलाया है, तीनों को मिलाकर मोक्ष का एक उपाय निर्दिष्ट नहीं किया, जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र के प्रथमसूत्र में मोक्षमार्गः इस एक वचनात्मक पद के प्रयोग-द्वारा किया गया है। अतः ये तीनों यहाँ समस्तरूप में नहीं, किन्तु व्यस्त (अलग-अलग) रूप में मोक्ष के मार्ग निर्दिष्ट हुए हैं और उन्हें एक दूसरे का प्रतिपक्षी लिखा है। साथ ही तीनों सम्यक् विशेषण से शून्य हैं और दर्शन को ज्ञान के पूर्व न रखकर उसके अनन्तर रक्खा गया है, जो कि समूची द्वात्रिंशिका पर से श्रद्धान अर्थ का वाचक भी प्रतीत नहीं होता। यह सब कथन सन्मतिसूत्र के निम्न वाक्यों के विरुद्ध जाता है, जिनमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्रतिपत्ति से सम्पन्न भव्यजीव को संसार के दुःखों का अन्तकर्तारूप में उल्लेखित किया है और कथन को हेतुवाद-सम्मत बतलाया है (३/४४) तथा दर्शन शब्द का अर्थ जिनप्रणीत पदार्थों का श्रद्धान ग्रहण किया है। साथ ही सम्यग्दर्शन के उत्तरवर्ती सम्यग्ज्ञान को सम्यग्दर्शन से युक्त बतलाते हुए वह । इस तरह सम्यग्दर्शन रूप भी है, ऐसा प्रतिपादन किया है (२/३२, ३३ )
एवं जिणपण्णत्ते सद्दहमाणस्स भावओ भावे। पुरिसस्साभिणिबोहे दंसणसद्दो हवइ जुत्तो॥ २/३२॥ सम्मण्णाणे णियमेण दंसणं उ भयणिजं। सम्मण्णाणं च इमं ति अत्थओ होइ उववण्णं ॥ २/३३॥
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