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अ०१७/प्र०१
तिलोयपण्णत्ती / ४५३ दिव्यैर्ध्वनिसितच्छत्रचामरैर्दुन्दुभिः स्वनैः।।
दिव्यैर्विनिर्मित-स्तोत्र-श्रमदर्दुरिभिर्जनैः॥ ६॥ आदिपुराण में भी "यक्षरुदक्षिप्यत चामराली" (२३/५५) तथा "धीन्द्राश्चतुः षष्टिमुदाहरन्ति" (२३/५९) इन उक्तियों के द्वारा चामरों की बहुलता एवं उनकी ६४ संख्या का प्रतिपादन किया गया है।
आचार्य यतिवृषभ ने भी तिलोयपण्णत्ती में ६४ चामरों का वर्णन किया
चउसट्ठि-चामरेहिं, मुणाल-कुंदेंदु-संख-धवलेहि।
सुरकर-पलव्विदेहिं विजिज्जंता जयंतु जिणा॥ ४/९३६॥ यह भी तिलोयपण्णत्ती के दिगम्बरीय ग्रन्थ होने का एक प्रमाण है। उक्त दोनों श्वेताम्बर विद्वानों ने भी इन विशेषताओं के कारण तिलोयपण्णत्ती को दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ बतलाया है। यह उनके निम्नलिखित अनुच्छेद १५ में उद्धृत वचनों से सूचित होता है।
तीर्थंकर के नभोयान का उल्लेख पूर्वोक्त श्वेताम्बर विद्वद्वय ने श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यताओं में एक अन्तर और भी निर्दिष्ट किया है। वह नभोयान या आकाशगमन से सम्बन्धित है। उनके अनुसार श्वेताम्बरपरम्परा में भगवान् का आकाशगमन नहीं माना गया है, जबकि दिगम्बरपरम्परा मानती है। और इस भेद के आधार पर उन्होंने भक्तामरस्तोत्र के 'उन्निद्रहेमवनपङ्कजपुञ्जकान्ति' इस ३६वें पद्य में नभोयान का वर्णन न मानकर उसे श्वेताम्बराचार्यकृत माना है। उक्त विद्वद्वय लिखते हैं
"(भक्तामर) स्तोत्र के ३२वें (दिगम्बरपाठ के ३६वें) पद्य में जिनेन्द्र का कमलविहार उल्लिखित है। दिगम्बरसम्प्रदाय में तिलोयपण्णत्ती और समन्तभद्रकृत आप्तमीमांसा आदि प्राचीन रचनाओं में जिन का नभोविहार होना बतलाया है२४ और समन्तभद्र के बृहत्स्वयंभूस्तोत्र में जिनपद्मप्रभ की स्तुति में एक ही पद्य में दोनों प्रकार के विहार (सन्दर्भानुसार) सूचित हैं। भक्तामर में नभोयान का उल्लेख है ही नहीं, वहाँ यह बात कहने के लिए चार पदयुक्त पद्य में कहीं न कहीं अवकाश
२४. देवागम-नभोयान-चामरादिविभूतयः।
मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान्॥ १॥ आप्तमीमांसा।
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