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भ०१७/प्र०२
तिलोयपण्णत्ती / ४६३ ७. तिलोयपण्णत्ती में जिन आचार्यों के स्वर्गस्थ होने पर श्रुत का क्रमिक विच्छेद बतलाया है, वे सब दिगम्बराचार्य हैं, यह हरिवंशपुराण, धवला आदि ग्रन्थों तथा नन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली से प्रमाणित है। उनमें से श्रुतकेवली भद्रबाहु को छोड़कर किसी भी आचार्य का नाम श्वेताम्बर या यापनीय सम्प्रदाय के ग्रन्थों, पट्टावलियों या शिलालेखों में उपलब्ध नहीं होता। इससे सिद्ध है कि तिलोयपण्णत्ती में दिगम्बरमान्य श्रुतविच्छेदक्रम का ही उल्लेख है, यापनीयमान्य श्रुतविच्छेदक्रम का नहीं।
८. डॉ० सागरमल जी का कथन है कि "श्वेताम्बरपरम्परा के आगमिक-प्रकीर्णक तीर्थोद्गालिक में भी आगमों के उच्छेदक्रम का उल्लेख है। जब आगमों के होते हुए भी श्वेताम्बरपरम्परा उनके विच्छेद की बात कर सकती है, तो यापनीय आचार्यों द्वारा उनके विच्छेद की बात करना आश्चर्यजनक भी नहीं है।" (जै.ध.या.स./ पृ. ११७)।
डॉक्टर सा० का यह 'तर्क' संगत हो सकता था, यदि यापनीयों ने कहीं आगमविच्छेद की बात की होती। किन्तु उन्होंने यह बात कहीं की ही नहीं है, तब उसकी 'तीर्थोद्गालिक' के उल्लेख से तलना करने और उसके आश्चर्यजनक न होने की टिप्पणी करने का कोई औचित्य ही नहीं है, जैसे बन्ध्यापुत्र के नाम पर कोई टिप्पणी करना औचित्यपूर्ण नहीं है। तिलोयपण्णत्ती में यापनीयमत-विरुद्ध अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। इससे सिद्ध है कि तिलोयपण्णत्ती यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। यह इस बात का प्रमाण है कि उसमें वर्णित आगमविच्छेदक्रम दिगम्बरों का ही मत है, यापनीयों का नहीं।
९. यदि यह माना जाय कि दिगम्बरों के अतिरिक्त श्वेताम्बरों और यापनीयों को भी आगमविच्छेद मान्य है तो आगमविच्छेद के उल्लेख के आधार पर तिलोयपण्णत्ती दिगम्बरग्रन्थ भी सिद्ध होगा, श्वेताम्बरग्रन्थ भी और यापीनयग्रन्थ भी, केवल यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं हो सकता। अतः तिलोयपण्णत्ती को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए यह मानना अयुक्तिसंगत है कि यापनीय भी आगमविच्छेद मानने लगे थे। इस तरह यह हेतु भी मिथ्या साबित होता है। ॥ इन युक्तियों और प्रमाणों से सिद्ध है कि 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने तिलोयपण्णत्ती को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो हेतु उपस्थित किये हैं, उनमें से कुछ का तो अस्तित्व ही नहीं है अर्थात् वे असत्य हैं तथा कुछ । हेतु का लक्षण घटित नहीं होता, अतः वे हेत्वाभास या अहेतु हैं। इस तरह उसे जपनीयग्रन्थ सिद्ध करनेवाला कोई हेतु उपलब्ध न होने से निर्णीत होता है कि वह अपनीयग्रन्थ नहीं है। इसके विपरीत उसे दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध करनेवाले अनेक हेतु
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