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४७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८ / प्र०१ __ "दंसण त्ति-दसणपभावगाणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छय-सम्मत्यादि गिण्हंतोऽसंथरमाणो जं अकप्पियं पडिसेवइ जयणाए तत्थ सो सुद्धोऽप्रायश्चित्त इत्यर्थः।"१
"इससे प्रथमोल्लिखित सिद्धिविनिश्चय की तरह यह ग्रंथ भी कितने असाधारण महत्त्व का है इसे विज्ञपाठक स्वयं समझ सकते हैं। ऐसे ग्रंथ जैनदर्शन की प्रतिष्ठा को स्व-पर हृदयों में अंकित करनेवाले होते हैं। तदनुसार यह ग्रंथ भी अपनी कीर्ति को अक्षुण्ण बनाये हुए है।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./पृ.११९)।
सिद्धसेन नाम के अनेक ग्रन्थकार मुख्तार जी आगे लिखते हैं-"इस सन्मति ग्रंथ के कर्ता आचार्य सिद्धसेन हैं, इसमें किसी को भी कोई विवाद नहीं है। अनेक ग्रंथों में ग्रंथनाम के साथ सिद्धसेन का नाम उल्लिखित है और इस ग्रन्थ के वाक्य भी सिद्धसेन नाम के साथ उद्धृत मिलते हैं, जैसे जयधवला (क.पा./ भाग १/ पृ. २३६) में आचार्य वीरसेन ने "णामं ठवणा दवियं" नाम की छठी गाथा को "उत्तं च सिद्धसेणेण" इस वाक्य के साथ उद्धृत किया है और पंचवस्तु में आचार्य हरिभद्र ने "आयरियसिद्धसेणेण सम्मईए पइट्ठिअजसेणं" वाक्य के द्वारा सन्मति को सिद्धसेन की कृतिरूप में निर्दिष्ट किया है, साथ ही "कालो सहाव णियई" नाम की एक गाथा भी उसकी उद्धृत की है। परन्तु ये सिद्धसेन कौन-से हैं, किस विशेष परिचय को लिए हुए हैं? कौन-से सम्प्रदाय अथवा आम्नाय से सम्बन्ध रखते हैं? इनके गुरु कौन थे? इनकी दूसरी कृतियाँ कौनसी हैं? और इनका समय क्या है? ये सब बातें ऐसी हैं, जो विवाद का विषय जरूर हैं। क्योंकि जैनसमाज में सिद्धसेन नाम के अनेक आचार्य और प्रखर तार्किक विद्वान् भी हो गये हैं और इस ग्रंथ में ग्रंथकार ने अपना कोई परिचय दिया नहीं, न रचनाकाल ही दिया है, ग्रंथ की आदिम गाथा में प्रयुक्त हुए सिद्धं पद के द्वारा श्लेषरूप में अपने नाम का सूचनमात्र किया है, इतना ही समझा जा सकता है। कोई प्रशस्ति भी किसी दूसरे विद्वान् के द्वारा निर्मित होकर ग्रंथ के अन्त में लगी हुई नहीं है। दूसरे जिन ग्रंथों, खासकर द्वात्रिंशिकाओं तथा न्यायावतार को इन्हीं आचार्य की कृति समझा जाता और प्रतिपादन किया जाता है, उनमें भी कोई परिचय-पद्य तथा प्रशस्ति नहीं
१. श्वेताम्बरों के निशीथ ग्रन्थ की चूर्णि में भी ऐसा ही उल्लेख है-“दंसणगाही
दसणणाणप्पभाव-गाणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छय-संमतिमादि गेण्हतो असंथरमाणे जं अकप्पिय पडिसेवति जयणाते तत्थ सो सुद्धो अप्रायश्चित्ती भवतीत्यर्थः।" (उद्देशक १)।
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