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अष्टादश अध्याय
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य
प्रथम प्रकरण
सन्मतिसूत्रकार के दिगम्बर होने के प्रमाण
आचार्य सिद्धसेनकृत सन्मतिसूत्र प्राचीनकाल से दिगम्बरग्रन्थ के रूप में प्रसिद्ध है, किन्तु कुछ आधुनिक श्वेताम्बर विद्वानों ने उसे श्वेताम्बरग्रन्थ तथा कुछ नवीन दिगम्बर शोधकर्त्ताओं ने यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। डॉ० सागरमल जी ने उसे स्वकल्पित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा का ग्रन्थ बतलाया है।
माननीय पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने गहन अनुसन्धान करके प्रबल युक्तियों और प्रमाणों के द्वारा सिद्ध किया है कि वह दिगम्बरग्रन्थ ही है । उनका यह अनुसन्धानात्मक लेख उनके पुरातन - जैनवाक्य-सूची नामक ग्रन्थ की प्रस्तावना का अंग है, जो पृष्ठ ११९ से १६८ तक सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन नाम से मुद्रित है। उनकी युक्तियों और प्रमाणों को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ। केवल उनके द्वारा प्रयुक्त कुल तीन (क), (ख), (ग) क्रमाक्षरवाले शीर्षकों के स्थान पर तथा अन्य अनेक शीर्षकरहित स्थानों पर नये शीर्षकों का प्रयोग मेरे द्वारा किया जा रहा है।
सन्मतिसूत्र जैनदर्शन - प्रभावक ग्रन्थ
मुख्तार जी 'पुरातन - जैन - वाक्य - सूची' की प्रस्तावना में 'सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन' शीर्षक के अन्तर्गत सिद्धसेनकृत 'सन्मतिसूत्र' के विषय में लिखते हैं-" इसकी गणना जैनशासन के दर्शन - प्रभावक ग्रंथों में है। श्वेताम्बरों के जीतकल्पचूर्णि ग्रंथ की श्रीचन्द्रसूरि - विरचित विषमपदव्याख्या नाम की टीका में श्रीअकलङ्कदेव के सिद्धिविनिश्चय ग्रंथ के साथ इस सन्मति ग्रंथ का भी दर्शनप्रभावक ग्रंथों में नामोल्लेख किया गया है और लिखा है कि 'ऐसे दर्शनप्रभावक शास्त्रों का अध्ययन करते हुए साधु को अकल्पित प्रतिसेवना का दोष भी लगे, तो उसका कुछ भी प्रायश्चित्त नहीं है, वह साधु शुद्ध है ।' यथा
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