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द्वितीय प्रकरण
यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता
सवस्त्रमुक्तिनिषेध, स्त्रीमुक्तिनिषेध, गृहस्थमुक्तिनिषेध, अन्यतीर्थिकमुक्तिनिषेध, केवलिभुक्तिनिषेध और अट्ठाईस मूलगुणविधान, इनमें से एक भी सिद्धान्त की उपस्थिति तिलोयपण्णत्ती को दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है, फिर इसमें तो ये सब के सब मौजूद हैं। ये सिद्धान्त यापनीयमत- विरुद्ध होने से यापनीयग्रन्थ के प्रतिलक्षण हैं। इसलिए इनकी उपस्थिति में अन्य कोई भी तथ्य तिलोयपण्णत्ती को यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं कर सकता। इस उद्देश्य से जो भी हेतु प्रस्तुत किया जायेगा उसका या तो अस्तित्व ही नहीं होगा या उसमें हेतु का लक्षण घटित नहीं होगा, अत एव अहेतु या हेत्वाभास होगा । अतः यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखक डॉ० सागरमल जी जैन ने तिलोयपण्णत्ती को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जितने हेतु प्रस्तुत किये हैं, वे सब इसी प्रकार के हैं अर्थात् असत्य या हेत्वाभास हैं । यहाँ उनकी असत्यता एवं हेत्वाभासता के प्रमाण प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
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कसायपाहुडचूर्णि एवं यतिवृषभ यापनीय नहीं
यापनीयपक्ष
विषयवस्तु एवं शैली की दृष्टि से अर्धमागधी आगमों और आगमिक व्याख्याओं के निकट होने से कसायपाहुडचूर्णि यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है। अतः उसके रचयिता यतिवृषभ भी यापनीय हैं। इसलिए उनके द्वारा रचित तिलोयपण्णत्ती भी यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है । (जै. ध.या.स./ पृ. १११) ।
दिगम्बरपक्ष
तिलोयपण्णत्ती में प्रतिपादित यापनीयमत- विरुद्ध सिद्धान्तों से सिद्ध है कि उसके कर्त्ता यतिवृषभ यापनीय - आचार्य नहीं हैं, अपितु दिगम्बर हैं। अतः उनके द्वारा रचित कसायपाहुड - चूर्णिसूत्र भी यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है । इसलिए उसके रचायिता यतिवृषभ भी यापनीय नहीं हैं । अतः तिलोयपण्णत्ती को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए उसके रचयिता यतिवृषभ को यापनीय मानने का हेतु असत्य है । इससे सिद्ध है कि तिलोयपण्णत्ती यापनीयग्रन्थ नहीं है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि विषयवस्तु एवं शैली की दृष्टि से अर्धमागधी - आगमों के निकट होना यापनीयग्रन्थ का लक्षण या हेतु नहीं है।
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