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४४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१७ / प्र०१ है, 'काल' शब्द नहीं। और 'अद्धासमय' शब्द का अर्थ वहाँ पर्याय ही लिया गया है, प्रदेशात्मक द्रव्य नहीं। तत्त्वार्थभाष्यकार ने भी इसी परिपाटी का निर्वाह किया है। उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के जिन सूत्रों में 'काल' शब्द आया है, वहाँ तो उनकी व्याख्या करते हुए 'काल' शब्द का ही उपयोग किया है, किन्तु जिन सूत्रों में 'काल' शब्द नहीं आया है और वहाँ 'काल' का उल्लेख करना उन्होंने आवश्यक समझा, तो 'काल' शब्द का प्रयोग न कर अद्धासमय" शब्द का ही प्रयोग किया है। (स.सि./ प्रस्ता. । पृ.३५)।
इस तरह श्वेताम्बरपरम्परा में काल को स्वतंत्र द्रव्य के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है, किन्तु तिलोयपण्णत्ती उसे स्वतन्त्रद्रव्य स्वीकार करती है। प्रमाणस्वरूप तिलोयपण्णत्ती की निम्नलिखित गाथाएँ द्रष्टव्य हैं
छद्दव्व-णव-पयत्थे सुदणाणं दुमणि-किरण-सत्तीए। .
देक्खंतु भव्वजीवा अण्णाण-तमेण संच्छण्णा॥ १/३४॥ अनुवाद-"(तिलोयपण्णत्ती ग्रन्थ की रचना इसलिए की गई है कि) अज्ञानान्धकार से आच्छादित भव्यजीव श्रुतज्ञानरूप सूर्य की किरणों से छह द्रव्य, और नौ पदार्थों को देख सकें।"
जीवा पोग्गलधम्माधम्मा काला इमाणि दव्वाणि।
सव्वं लोयायासं आधूइय पंच चिटुंति॥ १/९२॥ अनुवाद-"जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल, ये पाँच द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश को व्याप्त कर स्थित हैं।"
फासरसगंधवण्णेहि विरहिदो अगुरुलहुगुणजुत्तो।
वट्टणलक्खणकलियं कालसरूवं इमं होदि॥ ४/२८१॥ अनुवाद-"स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण से रहित, अगुरुलघुत्वगुण से सहित तथा वर्तनालक्षण से युक्त होना 'काल' द्रव्य का स्वरूप है।"
कालस्स दो वियप्पा मुक्खामुक्खा हवंति एदेसुं।
मुक्खाधारबलेणं अमुक्खकालो पवट्टेदि॥ ४/२८२॥ अनुवाद-"काल के मुख्य (निश्चय) और अमुख्य (व्यवहार), ये दो भेद हैं। इनमें से मुख्यकाल के आधार से अमुख्यकाल की प्रवृत्ति होती है।"
१७. "कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुत्वार्थमद्धासमयप्रतिषेधार्थं च।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ५/१।
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