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४४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१७ / प्र० १
अनुवाद - " लवणसमुद्र में अड़तालीस कुमानुषद्वीप हैं। इनमें से चौबीस अभ्यन्तर भाग में और इतने ही (२४) बाह्य भाग में हैं । "
तिलोयपण्णत्ती की अधोलिखित गाथा में कालोदसमुद्रगत ४८ द्वीपों का कथन
धादइसंडदिसासुं तेत्तियमेत्ता वि अंतरा दीवा । तेसुं तेत्तियमेत्ता कुमाणुसा होंति तण्णामा ॥ ४ / २५३० ॥ अनुवाद- -" धातकीखण्डद्वीप की दिशाओं (कालोदसमुद्र) में भी इतने (४८) ही अन्तरद्वीपों और उनमें रहनेवाले पूर्वोक्त नामों से युक्त कुमानुष हैं। "
इसका स्पष्टीकरण मुनि श्री प्रमाणसागर जी ने अधोलिखित वक्तव्य में किया है- " 'लवणसमुद्र में जम्बूद्वीप के तट पर चारों दिशाओं में चार, चारों विदिशाओं में चार और अन्तर्दिशाओं में आठ तथा भरत और ऐरावत क्षेत्र - सम्बन्धी दोनों विजयार्ध पर्वतों के दोनों छोरों के समीप एक-एक एवं हिमवान् और शिखरी पर्वत के दोनों छोरों पर एक-एक, इस प्रकार कुल ( ४+४+८+४+४ = २४ अन्तद्वीप हैं। इसी प्रकार २४ - २४ अन्तद्वप लवणसमुद्र के दूसरे तट और कालोद समुद्र के उभय तटों पर हैं। इस प्रकार कुल ४८ + ४८ = ९६ कुभोगभूमियाँ हैं । इनमें कुमानुषं निवास करते हैं, इसलिए इन्हें कुभोगभूमि कहते हैं । " ( जैनतत्त्वविद्या / पृ. ८६) ।
श्वेताम्बरग्रन्थ बृहत्क्षेत्रसमास के लवणाब्धि - अधिकार का विवरण देते हुए माननीय पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं- "इस अधिकार में अन्तरद्वीप छप्पन बतलाये हैं, जिनमें से अट्ठाईस द्वीप हिमालयपर्वतसम्बन्धी और २८ द्वीप शिखरीपर्वतसम्बन्धी हैं। इनके नाम क्रमशः एकोरुक, आभाषिक, वैषाणिक, लाङ्गलिक आदि हैं। " (जै.सा.इ./भा.२/पृ.६५ ) । श्वेताम्बरसाहित्य में कालोदधि में ऐसे अन्तद्वीप नहीं माने गये हैं ।" (जै. सा. इ./भा./पृ.२/६६)।
उल्लेख है- -" शिखरिणोऽप्येवमेवेत्यवं षट्पञ्चाशदिति । " (३/१५ / पृ. १७९) । किन्तु सिद्धसेनगणी के समय में (विक्रम की ७वीं शती के अन्तिम पाद से लेकर ८वीं शती के मध्यभाग तक उपलब्ध तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की प्रति में ९६ अन्तर द्वीपों का उल्लेख था । इस पर वृत्तिकार सिद्धसेन गणी ने रोष प्रकट करते हुए लिखा है कि यह कथन आर्षविरुद्ध है। जीवाभिगम आदि में अन्तरद्वीपों की संख्या ५६ ही बतलायी गयी है- " एतच्चान्तरद्वीपकभाष्यं प्रायो विनाशितं सर्वत्र कैरपि दुर्विदग्धैर्येन षण्णवतिरन्तरद्वीपका भाष्येषु दृश्यन्ते । अनार्षं चैतदध्यवसीयते जीवाभिगमादिषु षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपकाध्ययनात्।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ३ / १५ / पृ.२६७।
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