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३५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
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अनुवाद - " जिनवचनरूपी महासागर का विषय अतिमहान् है। उनका निरूपण करनेवाले ग्रन्थों और उनके भाष्यों का पार पाना कठिन है। अतः उनका संग्रह कौन कर सकता है ? जो उनका संग्रह करने की कोशिश करता है, वह मानो शिर से पर्वत को चूर-चूर करना चाहता है, भुजाओं से पृथ्वी को उठाकर फेंकना चाहता है, बाहुओं से समुद्र पार करना चाहता है, तिनके से समुद्र की थाह लगाना चाहता है, चन्द्रमा को छूना चाहता है, मेरु को हथेली से हिलाना चाहता है, दौड़कर वायु से आगे निकलना चाहता है, अन्तिम समुद्र ( स्वयम्भूरमण ) को पीना चाहता है और जुगनुओं के प्रकाश से सूर्य के प्रकाश को मन्द करना चाहता है ।
अ०१६ / प्र० २
व्योम्नीन्दुं चिक्रमिषेन्मेरुगिरिं पाणिना चिकम्पयिषेत् । गत्यानिलं जिगीषेच्चरमसमुद्रं पिपासेच्च ॥ २५ ॥
मोक्षमार्ग के निरूपण में अलंकारों का यह मनोहारी प्रचुर प्रयोग शैली के अतिविकसित रूप की ओर संकेत करता है। इतना ही नहीं, भाष्य में जिस गद्य का विन्यास किया गया है, वह बाणभट्ट की 'कादम्बरी' के स्तर को छूनेवाला उच्चकोटि का साहित्यिक गद्य है, जिस का प्रणयन पूर्ण विकसित गद्यकाव्य का गहन अनुशीलन किये बिना संभव नहीं है । सर्वार्थसिद्धि में प्रयुक्त गद्य उसकी तुलना में बहुत पिछड़ा प्रतीत होता है। दोनों पर तुलनात्मक दृष्टि डालने से यह बात स्पष्ट हो जाती है। यहाँ दोनों ग्रन्थों से आस्त्रवानुप्रेक्षा के निरूपण में निबद्ध गद्य के नमूने प्रस्तुत किये जा रहे हैं
सर्वार्थसिद्धि के गद्य का स्वरूप
'आस्रवा इहामुत्रापाययुक्ता महानदीस्रोतोवेगतीक्ष्णा इन्द्रियकषाया व्रतादयः । तत्रेन्द्रियाणि तावत्स्पर्शनादीनि वनगज - वायस - पन्नग - पतङ्ग - हरिणादीन् व्यसनार्णवमवगाहयन्ति तथा कषायादयोऽपीह वध - बन्धापयश : परिक्लेशादीन् जनयन्ति । अमुत्र च नानागतिषु बहुविधदुःखप्रज्वलितासु परिभ्रमयन्तीत्येवमात्रवदोषानुचिन्तनमात्रवानुप्रेक्षा ।" (९/७/८०५/ पृ. ३२७) ।
तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के गद्य का स्वरूप
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खद्योतकप्रभाभिः सोऽभिबुभूषेच्च भास्करं मोहात् । योऽतिमहाग्रन्थार्थं जिनवचनं संजिघृक्षेच्च ॥ २६॥
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'आस्रवानिहामुत्रापाययुक्तान्महानदीस्रोतोवेगतीक्ष्णानकुशलागमकुशलनिर्गमद्वारभूतानिन्द्रियादीनवद्यतश्चिन्तयेत् । तद्यथा – स्पर्शनेन्द्रियप्रसक्तचित्तः सिद्धोऽनेकविद्याबलसम्पन्नोऽप्याकाशगोऽष्टाङ्गनिमित्तपारगो गार्ग्यः सात्यकिर्निधनमाजगाम । तथा प्रभूतयवसोदक
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