________________
३५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
ङ
च
अ० १६ / प्र० २
अपायोऽपगमः अपनोदः अपव्याधः अपेतमपगतमपविद्धमपनुत्तमित्यनर्थान्तरम् । ( १ / १५ )।
धारणा प्रतिपत्तिरवधारणमवस्थानं निश्चयोऽवगमः अवबोध इत्यनर्थान्तरम् । (१ / १५)
छ इच्छा प्रार्थना कामोऽभिलाषः काङ्क्षा गाद्ध मूर्च्छत्यनर्थान्तरम् । (७/१२)। पर्यायशब्दों के द्वारा अर्थ का स्पष्टीकरण भाष्यकार की विशिष्ट शैली का परिचायक है । यह शैलीगत नवीनता का लक्षण है ।
७. सर्वार्थसिद्धि में कहीं भी नयवाद शब्द का प्रयोग नहीं है, न ही नयों के द्वारा (सूत्र १० / ९ को छोड़कर) कथनविशेष के औचित्य का प्रतिपादन किया गया है । किन्तु भाष्य में नयवाद शब्द का प्रयोग करते हुए उसके द्वारा कई जगह विभिन्न कथनों में समन्वय स्थापित किया गया है । १४२ यह शैली के विकास का द्योतक है।
इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि को तत्त्वार्थाधिगमभाष्य से अर्वाचीन सिद्ध करने के लिए जो यह हेतु बतलाया गया है कि भाष्य की शैली सर्वार्थसिद्धि की शैली से प्राचीन है, वह असत्य है ।
६.२. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में अर्थविस्तार
पं० सुखलाल संघवी जी का दूसरा तर्क यह है कि " अर्थ की दृष्टि से भी भाष्य की अपेक्षा सर्वार्थसिद्धि अर्वाचीन प्रतीत होती है। जो एक बात भाष्य में होती है, उसको विस्तृत करके, उस पर अधिक चर्चा करके, सर्वार्थसिद्धि में निरूपण हुआ है। व्याकरणशास्त्र और जैनेतर दर्शनों की जितनी चर्चा सर्वार्थसिद्धि में है, उतनी भाष्य में नहीं है। जैन परिभाषा का संक्षिप्त होते हुए भी, जो स्थिर विशदीकरण और वक्तव्य का जो विश्लेषण सर्वार्थसिद्धि में है, वह भाष्य में कम से कम है। भाष्य की अपेक्षा सर्वार्थसिद्धि की तार्किकता बढ़ जाती है और भाष्य में जो नहीं है, ऐसे विज्ञानवादी बौद्ध आदि के मन्तव्य उसमें जोड़े जाते हैं और इतर दर्शनों का खण्डन जोर पकड़ता है। ये सब बातें सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा भाष्य की प्राचीनता को सिद्ध करती हैं।" (त.सू. / वि.स./ प्रस्ता. / पृ. ६३-६४) ।
इस विषय में मेरा निवेदन है कि भाष्य में अन्य प्रकार से सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा अर्थ का विस्तार उपलब्ध होता है। उसमें विशेषणों, अलंकारों और उदाहरणों को जोड़कर,
१४२. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य १ / ६, १२, ३५, २/४३ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org