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अ०१६ / प्र०२
तत्त्वार्थसूत्र / ३६९ में तो उसे व्याख्याग्रन्थ संज्ञा ही प्राप्त नहीं हो सकती। भाष्य में जिन सूत्रों की व्याख्या की गयी है, उन्हीं सूत्रों की व्याख्या के कारण वह व्याख्याग्रन्थ या भाष्यग्रन्थ कहला सकता है और उन सूत्रों की व्याख्या का विस्तार सर्वार्थसिद्धिगत व्याख्या के विस्तार से अधिक है। उनकी पंक्तिसंख्या पूर्व में बतलायी जा चुकी है। जहाँ विस्तार अधिक नहीं है, वहाँ वह समान है। इससे सिद्ध है कि भाष्य ही सर्वार्थसिद्धि से अधिक विकसित है। अतः सर्वाथसिद्धि को भाष्योत्तरवर्ती सिद्ध करने के लिए बतलाया गया विकसित होने का हेतु असत्य है।
तथापि किसी ग्रन्थ का विस्तृत होना उसकी अर्वाचीनता का लक्षण नहीं हो सकता। ऐसा मानने पर आचारांगादि समस्त श्वेताम्बर-आगम तत्त्वार्थसूत्र से अर्वाचीन सिद्ध होंगे, क्योंकि वे उससे अधिक विस्तृत हैं। दूसरी ओर १०वीं शती ई० के बृहत्प्रभाचन्द्र द्वारा रचित १०५ सूत्रवाला लघु तत्त्वार्थसूत्र उमास्वातिकृत ३५७ सूत्रवाले तत्त्वार्थसूत्र से पूर्ववर्ती सिद्ध होगा। इसका विस्तृत विवेचन दशम अध्याय के चतुर्थ प्रकरण में शीर्षक ३.४. में द्रष्टव्य है। सर्वार्थसिद्धि की भाष्यपूर्वता पूर्वोक्त शीर्षक क्र. १ से ५ तक प्रदर्शित प्रमाणों से सिद्ध होती है। ६.४. दोनों की रचना सम्प्रदायभेद के बाद
तीसरा तर्क देते हुए पं० सुखलाल जी संघवी लिखते हैं-"उक्त दो बातों की अपेक्षा साम्प्रदायिकता की बात अधिक महत्त्वपूर्ण है। कालतत्त्व, केवलि-कवलाहार, अचेलकत्व और स्त्रीमुक्ति जैसे विषयों के तीव्र मतभेद का रूप धारण करने के बाद
और इन बातों पर साम्प्रदायिक आग्रह बँध जाने के बाद ही सर्वार्थसिद्धि लिखी गई, जब कि भाष्य में साम्प्रदायिक अभिनिवेश का यह तत्त्व दिखाई नहीं देता।" (त.सू./ वि.स./प्रस्ता./ पृ. ६४)। ____ संघवी जी का यह तर्क भी तथ्यों के विपरीत हैं। तथ्य यह है कि सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थाधिगमभाष्य दोनों की रचना सम्प्रदायभेद के बाद ही हुई है और दोनों में साम्प्रदायिक मतभेद दिखाई देता है। जहाँ सर्वार्थसिद्धि में सवस्त्रमुक्ति और स्त्रीमुक्ति का एकान्ततः निषेध है, वहाँ भाष्य में उनका एकान्ततः प्रतिपादन है। 'दिगम्बर-श्वेताम्बरभेद का इतिहास' नामक षष्ठ अध्याय में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है कि मूल निर्ग्रन्थसंघ का सर्वप्रथम विभाजन अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी (४६५ ई० पू०) के निर्वाण के बाद ही हो गया था। दूसरा विभाजन ईसापूर्व चौथी शती में सम्राट चन्द्रगुप्त के काल में द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के परिणामस्वरूप हुआ था। दोनों बार विभाजन का कारण अचेलमुक्ति और सचेलमुक्ति को लेकर उत्पन्न हुआ मतभेद था। अचेलमुक्ति के सिद्धान्त में स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति के लिए स्थान नहीं है, यह पूर्व
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