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३९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६/प्र०४ स्थानांग, भगवती आदि, पुद्गलों के स्कन्ध वर्ण, शब्द के लिए उत्तराध्ययन, प्रज्ञापना, भगवती, स्थानांगादि, उत्पादादि स्याद्वाद के लिए नयापेक्षयुक्त अनुयोगद्वार, भगवती आदि, द्रव्यादि के लक्षणों के लिए उत्तराध्ययनादि, आश्रव के लिए स्थानांग, भगवती आदि, ज्ञानावरणादि हेतुओं के लिए श्रीभगवतीजी, पंचसंग्रहादि प्रकरण, देशसर्वविरति और भावना के लिए सूगडांग (सूत्रकृतांग), आचारांग, उपासकदशादि, अतिचारों के लिए उपासकदशांग, श्राद्धप्रतिक्रमणादि, कर्म के भेदों के लिए स्थानांग, प्रज्ञापना, भगवती, कर्मप्रकृत्यादि, कर्मों की स्थिति के लिए स्थानांग, समवायांग, प्रज्ञापनादि, संवर के लिए उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आचारांगादि, परीषह के लिए उत्तराध्ययन, भगवत्यादि, तपस्या के लिए उत्तराध्ययन, औपपातिक, स्थानांग, भगवत्यादि, ध्यान के लिए आवश्यकनियुक्ति,
औपपातिक, स्थानांगादि, निर्ग्रन्थों के स्वरूप के लिए भगवती, उत्तराध्ययन, स्थानांगादि, मोक्ष के लिए औपपातिक, प्रज्ञापनादि, इन सबका मतलब यह है कि श्रीमान् उमास्वाति वाचक जी ने तत्त्वार्थसूत्र में जो हकीकत कही है, वे सूत्रों में अनुपलब्ध नहीं है।" (तत्त्वार्थकर्तृतन्मतनिर्णय / पृ. १५७-१५९)।
मुनि जी की भाषा बहुत पुरानी है, इसलिए वाक्य रचना सही नहीं हो पायी है, फिर भी आशय समझ में आ जाता है। उनके इस विवरण से स्पष्ट है कि नन्दीसूत्र
और अनुयोगद्वार में जो विषय निरूपित है, वह अन्य किसी श्वेताम्बर-आगम में उपलब्ध नहीं है। और चूँकि इन दो ग्रन्थों की रचना तत्त्वार्थसूत्र की रचना के बाद हुई थी, इसलिए ये भी तत्त्वार्थसूत्र की रचना का आधार नहीं हो सकते। अत: सिद्ध है कि उपर्युक्त सूत्रों की रचना दिगम्बर-ग्रन्थों के आधार पर हुई है।
सूत्रों की दिगम्बरग्रन्थों से शब्द-अर्थ-रचनागत समानता
तत्त्वार्थसूत्र में अनेक सूत्र ऐसे हैं, जिनकी दिगम्बरग्रन्थों में उपलब्ध सूत्रादि से शाब्दिक, आर्थिक और रचनात्मक (अल्पशब्दप्रयोग की) समानता है, श्वेताम्बरग्रन्थों में उपलब्ध सूत्रादि से उनकी विषमता है। निम्नलिखित उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है। यहाँ श्वेताम्बर-आगमों से जो उदाहरण दिये गये हैं, वे सभी तत्त्वार्थसूत्रजैनागम-समन्वय से उद्धृत हैं
तत्त्वार्थसूत्र – सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। १/१ । पंचास्तिकाय - दंसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गो। १६४ ।
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