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४०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६ / प्र०४ स्थानांग - दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा-परमाणुपोग्गला नोपरमाणु
पोग्गला चेव। २/३/८२। यहाँ सूत्र में प्रयुक्त स्कन्ध शब्द नियमसार के खंध से समानता रखता है। स्थानांग में इस शब्द का प्रयोग ही नहीं है।
तत्त्वार्थसूत्र - सद् द्रव्यलक्षणम्। ५/२९ । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्। ५/३० ।
गुणपर्ययवद् द्रव्यम्। ५ /३८ । पंचास्तिकाय - दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं।
गुणपजयासयं वा जं तंभण्णंति सव्वण्हू॥ १०॥ व्याख्याप्रज्ञ. - सहव्वं वा। ८/९। स्थानांग - माउयाणुओगे उपन्ने वा विगए वा धुवे वा। १० । उत्तरा. सूत्र – गुणाणमासओ दव्वं एगदव्वस्सिया गुणा।
लक्खणं पजवाणं तु उभओ अस्सिया भवे॥ २८/६॥ यहाँ तत्त्वार्थ के उपर्युक्त सूत्रों का एक-एक शब्द और वाक्यरचना पञ्चास्तिकाय की गाथा से ज्यों की त्यों मिलती है। वस्तुतः सूत्रकार ने गाथा को ही विभाजित कर तीन सूत्रों का निर्माण किया है। ऐसा साम्य स्थानांग और उत्तराध्ययन के सूत्रों के साथ नहीं है।
पं० सुखलाल जी संघवी ने भी इस बात को स्वीकार किया है। वे लिखते हैं-"विक्रम की पहली-दूसरी शताब्दी के माने जानेवाले कुन्दकुन्द के प्राकृतवचनों के साथ तत्त्वार्थ के संस्कृत सूत्रों का कहीं तो पूर्ण और कहीं बहुत ही कम सादृश्य है। श्वेताम्बर-सूत्रपाठ में द्रव्य के लक्षणवाले दो ही सूत्र हैं-'उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्' तथा 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्।' इन दोनों के अतिरिक्त द्रव्य का लक्षणविषयक एक तीसरा सूत्र दिगम्बर-सूत्रपाठ में है-'सद् द्रव्यलक्षणम्।' ये तीनों दिगम्बर-सूत्रपाठगत सूत्र कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय की निम्न प्राकृतगाथा में पूर्णरूप से विद्यमान हैं-'दव्वं सल्लक्खणियं ---।' इसके अतिरिक्त कुन्दकुन्द के प्रसिद्ध ग्रन्थों के साथ तत्त्वार्थसूत्र का जो शाब्दिक तथा वस्तुगत महत्त्वपूर्ण सादृश्य है, वह आकस्मिक तो नहीं ही है।" (त.सू./वि. स./प्रस्ता./ पृ.९-१०)।
किन्तु डॉ. सागरमल जी मानते हैं कि तत्त्वार्थसूत्रकार कुन्दकुन्द से पूर्ववर्ती हैं, इसलिए तत्त्वार्थसूत्र और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में जो समानतत्त्व हैं, वे तत्त्वार्थसूत्र
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