________________
४३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१७ / प्र० १
रचित है, अतः यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है, फलस्वरूप उसके लेखक यतिवृषभ भी यापनीय हैं। (पृ. १११) ।
२. भाष्य और चूर्णि लिखने की परम्परा श्वेताम्बरों में ही रही है, दिगम्बरों में न तो कोई भाष्य लिखा गया और न कोई चूर्णि ही । श्वेताम्बरों और यापनीयों में आगमिक ज्ञान का पर्याप्त आदान-प्रदान रहा है । अतः यतिवृषभ के चूर्णिसूत्र यापनीयपरम्परा के ही होंगे। (पृ. ११४) ।
३. यदि यतिवृषभ, आर्यमंक्षु और नागहस्ती के परम्परा - शिष्य भी हों, तो भी वे बोटिक (यापनीय) ही होंगे, क्योंकि उत्तरभारतीय-अविभक्त-निर्ग्रन्थ- - परम्परा के आर्यमक्षु और नागहस्ती का सम्बन्ध बोटिकों (यापनीयों) से ही हो सकता है, मूलसंघीय दक्षिणभारतीय कुन्दकुन्द की दिगम्बरपरम्परा से नहीं । (पृ. ११४) ।
४. यापनीय शिवार्य ने भगवती - आराधना में सर्वगुप्तगणी का अपने गुरु के रूप में उल्लेख किया है । यतिवृषभ ने भी तिलोयपण्णत्ती में सर्वनन्दी को उद्धृत किया है । संभवतः ये दोनों एक ही व्यक्ति हों। इससे यही संभावना लगती है कि यापनीय शिवार्य के गुरु होने से सर्वनन्दी यापनीय थे, अतः उन्हें उद्धृत करनेवाले यतिवृषभ भी यापनीय होंगे। (पृ. ११४)।
५. यतिवृषभ के नाम के आदि में जो यति विरुद है, वह उनके यापनीय होने की सूचना देता है, क्योंकि नाम के पूर्व 'यति' शब्द के प्रयोग की प्रथा श्वेताम्बरों और यापनीयों में ही प्रचलित रही है, जैसे यतिग्रामाग्रणी शाकटायन। (पृ. ११४)।
६. " यतिवृषभ के चूर्णिसूत्रों में न तो स्त्रीमुक्ति का निषेध है और न केवलिभुक्ति का । अतः उन्हें यापनीयपरम्परा से सम्बद्ध मानने में कोई बाधा नहीं आती।" (पृ. ११५) ।
७. भगवती - आराधना की 'अहिमारएण णिवदिम्मि' गाथा (२०६९) में कहा गया है कि उपसर्ग आने पर गणी ने शस्त्र मारकर आत्महत्या कर ली। अपराजित सूरि ने 'गणी' शब्द का अर्थ यतिवृषभ किया है । और शिवार्य तथा अपराजित यापनीय थे। अतः संभावना है कि उनके द्वारा उल्लिखित यतिवृषभ भी यापनीय रहे होंगे । (पृ. ११५) ।
८. उपर्युक्त उल्लेखानुसार यतिवृषभ की मृत्यु उत्तरभारत के श्रावस्ती नगर में हुई थी। उत्तरभारत बोटिकों या यापनीयों का केन्द्र था । अतः यतिवृषभ यापनीय आचार्य थे। (पृ. ११५) ।
९. तिलोयपण्णत्ती में आगमों के विच्छेद का जो क्रम दिया है, वह यापनीयपरम्परा के विरुद्ध है, उसे प्रक्षिप्त मानना होगा । (पृ. ११५ - ११६, १२०) ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org