________________
अ० १७ / प्र०१
तिलोयपण्णत्ती / ४४१ अर्थागम के कर्ता भगवान् महावीर के गुणों का वर्णन करते हुए यतिवृषभाचार्य ने कहा है
चउविह-उवसग्गेहिं णिच्चविमुक्को कसायपरिहीणो। छुह-पहुदि-परिसहेहिं परिचत्तो रायदोसेहिं॥ १/५९॥ एदेहिं अण्णेहिं विरचिद-चरणारविंद-जुगपूजो।
दिट्ठ-सयलट्ठ-सारो महवीरो अस्थ-कत्तारो॥ १/६४॥ अनुवाद-"जो देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यंचकृत और अचेतनकृत, इन चार प्रकार के उपसर्गों से सदा विमुक्त हैं, कषायों से शून्य हैं, क्षुधादि बाईस परीषहों एवं रागद्वेष से रहित हैं, देवादि तथा अन्यों के द्वारा जिनके चरणकमल पूजित हैं और जिन्होंने समस्त पदार्थों के सार का उपदेश किया है, वे भगवान् महावीर अर्थागम के कर्ता
यहाँ भगवान् महावीर को स्पष्ट शब्दों में क्षुधा आदि बाईस परीषहों से रहित कहा गया है। केवलिभुक्ति का इससे अधिक खुला निषेध और किन शब्दों में हो सकता है? इसके बाबजूद प्रतिपक्षी विद्वान् ने तिलोयपण्णत्ती को यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए हेत्वाभासों का विशाल मायाजाल खड़ा कर दिया है। केवलिभुक्तिनिषेध के प्रतिपादक अन्य उल्लेख भी ग्रन्थ में हैं। केवलज्ञानजन्य ग्यारह अतिशयों के वर्णन-प्रसंग में ग्रन्थकार यतिवृषभ कहते हैं
जोयणसदमजादं सुभिक्खदा चउदिसासु णियठाणा। __णहयल-गमणमहिंसा भोयण-उवसग्ग-परिहीणा॥ ४/९०८॥
अनुवाद-"केवलज्ञान होने पर जहाँ तीर्थंकर विराजमान होते हैं, वहाँ से सौ योजन दूर तक सुभिक्ष हो जाता है, उनका आकाश गमन होने लगता है, अहिंसामय वातावरण निर्मित हो जाता है और भगवान् भोजन तथा उपसर्गों से रहित हो जाते
इतना ही नहीं, ग्रन्थकार का कथन है कि जिनेन्द्रदेव के माहात्म्य से समवसरण में आये जीवों को भी भूख-प्यास आदि की पीड़ा नहीं होती
आतंक-रोग-मरणुप्पत्तीओ वेर-काम-बाधाओ।
तण्हा-छुह-पीडाओ जिण-माहप्पेण ण वि होंति॥ ४/९४२॥ इस तरह केवलिभुक्ति का निषेध भी तिलोयपण्णत्ती की वह विशेषता है, जो उसे दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ प्रमाणित करती है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org