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तिलोयपण्णत्ती / ४३९
अ० १७ / प्र० १
१. सुषमदुःषम (तृतीयकाल) की स्थिति में कुछ काल शेष रहने पर भी वर्षा आदि होने लगती है और विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति शुरू हो जाती है।
२. इस तृतीयकाल में ही कल्पवृक्षों का अन्त और कर्मभूमि का प्रारंभ हो जाता है। प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं।
३. चक्रवर्ती का विजयभंग और तृतीयकाल में ही थोड़े से जीवों का मोक्षगमन होता है तथा चक्रवर्ती के द्वारा ब्राह्मणवर्ण की उत्पत्ति की जाती है।
४. दुःषमसुषम (चतुर्थकाल) में केवल ५८ शलाका पुरुष उत्पन्न होते हैं और नौवें से सोलहवें तीर्थंकर तक सात तीर्थों में धर्म की व्युच्छित्ति हो जाती है ।
५. ग्यारह रुद्र और कलहप्रिय नौ नारद होते हैं तथा सातवें, तेईसवें और अन्तिम तीर्थंकर पर उपसर्ग भी होता है।
६. तृतीय, चतुर्थ एवं पंचमकाल में उत्तमधर्म को नष्ट करने वाले दुष्ट, पापिष्ठ, कुदेव और कुलिंगी भी दिखने लगते हैं, चाण्डाल, शबर आदि जातियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। दुःषमकाल में ४२ कल्की और उपकल्की भी होते हैं ।
७. अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूवृद्धि, वज्राग्नि का पतन आदि दोष भी हुआ करते हैं।
इनमें गर्भापहरण और स्त्री के तीर्थंकर होने आदि की घटनाओं का वर्णन नहीं है, जब कि ये श्वेताम्बरसाहित्य में वर्णित हैं और यापनीयों को भी मान्य हैं। यदि तिलोयपण्णत्ती श्वेताम्बरीय या यापनीय ग्रन्थ होता, तो उसमें इन घटनाओं का वर्णन छूट नहीं सकता था । ये घटनाएँ तो इन दोनों परम्पराओं की आत्मा हैं । इन घटनाओं का अनुल्लेख इस बात का प्रमाण है कि तिलोयपण्णत्ती में स्त्रीमुक्ति मान्य नहीं की गई है। यह तिलोयपण्णत्ति के दिगम्बरीय ग्रन्थ होने का पक्का सबूत है।
गृहस्थमुक्तिनिषेध
श्वेताम्बर और यापनीय दोनों सम्प्रदायों में गृहस्थलिंग से भी मुक्ति अर्थात् गृहस्थ की भी मुक्ति मानी गयी है । हरिभद्रसूरि गृहिलिंग से मुक्ति का उदाहरण देते हुए कहते हैं—“गृहिलिङ्गसिद्धा मरुदेवीप्रभृतयः १० अर्थात् मरुदेवी आदि गृहस्थलिंग से सिद्ध हुए हैं।
९. तिलोयपण्णत्ती ४ / १६३७-४५ । १०. ललितविस्तरा / गा.२ / पृ. ३९९ ।
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