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४३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१७/प्र०१ २.१. स्त्रियाँ पूर्वधर नहीं होती तिलोयपण्णत्ती के अष्टम महाधिकार में निम्नलिखित गाथा कही गयी है
दसपुव्वधरा सोहम्मपहुदि सव्वदृसिद्धिपरियंत।
चोद्दसपुव्वधरा तह लंतवकप्पादि वच्चंते॥ ८/५८०॥ इस गाथा में कहा गया है कि दसपूर्वधारी जीव सौधर्म कल्प से लेकर सर्वार्थसिद्धिपर्यन्त जाते हैं तथा चौदहपूर्वधारियों का गमन लान्तव कल्प से लेकर सर्वार्थसिद्धिपर्यन्त होता है। और यह पूर्वोद्धृत गाथा (८/५८२) में कहा जा चुका है कि स्त्रियाँ अच्युत स्वर्ग से ऊपर नहीं जातीं। इससे यह फलित होता है कि तिलोय-पण्णत्तिकार के अनुसार स्त्रियाँ पूर्वविद् नहीं हो सकती और पूर्वविद् न होने से आदि के दो शुक्लध्यान भी उन्हें नहीं हो सकते, जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है-"शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः।" (९/३७)। अतः उनकी मुक्ति संभव नहीं है।
यद्यपि श्वेताम्बर-मान्य तत्त्वार्थसूत्र में भी 'शुक्ले चाद्ये' (९/३९) सूत्र है और वे यह भी मानते हैं कि शारीरिक स्थिति के कारण स्त्रियों कि लिए द्वादशांग आगम के अध्ययन का निषेध किया गया है, तथापि वे इसकी यह व्याख्या करते हैं कि उनके लिए द्वादशांग आगम के अध्ययन का निषेध शब्दरूप से किया गया है, अर्थरूप से नहीं। शब्दरूप से उसका अध्ययन न करने पर भी जब वे क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होती हैं तब श्रुतज्ञानावरणकर्म का विशिष्ट क्षयोपशम हो जाता है, जिससे उनमें द्वादशांग आगम की अर्थरूप से अभिव्यक्ति हो जाती है और उससे शुक्लध्यान संभव होता है।
किन्तु तिलोयपण्णत्तिकार ने स्त्रियों के अच्युत स्वर्ग से ऊपर जाने का सर्वथा निषेध किया है, जो मुक्ति का भी निषेध है। इससे स्पष्ट है कि उन्हें स्त्रियों का भावपूर्वविद् होना भी मान्य नहीं है। यह श्वेताम्बरों और यापनीयों की मान्यता के विरुद्ध है। यह भी तिलोयपण्णत्ती के दिगम्बरीय ग्रन्थ होने का एक सबूत है।
२.२. मल्लिनाथ के साथ कोई स्त्रीदीक्षा नहीं
श्वेताम्बरीय आगम ज्ञातृधर्मकथांग में मल्लिनाथ को स्त्रीरूप में वर्णित किया गया है और कहा गया है कि जब उन्होंने दीक्षा ग्रहण की, तब उनके साथ उनकी आभ्यन्तरपरिषद् की तीन सौ स्त्रियाँ और बाह्यपरिषद् के तीन सौ पुरुष भी दीक्षित
१. "कथं द्वादशाङ्गप्रतिषेधः? तथाविधविग्रहे ततो दोषात्। श्रेणीपरिणतौ तु कालगर्भवद् भावतो
भावोऽविरुद्ध एव।" ललितविस्तरा/ हरिभद्रसूरि/ स्त्रीमुक्ति गा.३/पृ. ४०६।
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