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४३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१७ / प्र०१ इस गाथा में देशव्रती श्रावकों के सौधर्मस्वर्ग से लेकर अच्युतस्वर्ग पर्यन्त जाने का कथन है।
सम्मत्त-णाण-अजव-लज्जा-सीलादिएहि परिपुण्णा।
जायंते इत्थीओ जा अच्चुद-कप्प-परियंतं॥ ८/५८२॥ इसमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान, आर्जव, लज्जा और शीलादिगुणों से परिपूर्ण स्त्रियों की अच्युत स्वर्ग तक उत्पत्ति बतलायी गयी है।
जिणलिंगधारिणो जे उक्किट्ठतवस्समेण संपुण्णा।
ते जायंति अभव्वा उवरिम-गेवेज-परियंतं॥ ८/५८३॥ इस गाथा में कहा गया है कि जिनलिंगधारी अभव्य मुनि उपरिम अवेयक तक उत्पन्न हो सकते हैं।
परदो अच्चण-वद-तव-दंसण-णाण-चरण-संपण्णा। .
णिग्गंथा जायते भव्वा सव्वट्ठसिद्धिपरियंत॥ ८/५८४॥ यह गाथा बतलाती है कि निर्ग्रन्थ भव्य मुनि सर्वार्थसिद्धि तक के देव बन सकते हैं।
इन गाथाओं से तिलोयपण्णत्ती का यह मत स्पष्ट हो जाता है कि चूँकि श्रावक और स्त्रियाँ सवस्त्र होते हैं, अतः अपने उत्कृष्ट धर्माचरण से भी वे अधिक से अधिक अच्युत स्वर्ग तक के देव का पद प्राप्त कर सकते हैं, उससे ऊपर नहीं जा सकते। किन्तु जिनलिंगधारी मुनि निर्वस्त्र होते हैं, इसलिए वे सर्वार्थसिद्धि तक के देव बन सकते हैं और अपने चरमभव में उन्हें मुक्ति प्राप्त हो सकती है। इस तरह सिद्ध है कि तिलोयपण्णत्ती में एकमात्र जिनलिंग या निर्ग्रन्थ-लिंग को ही मोक्ष का साधक माना गया है, सवस्त्रलिंग को स्थविरकल्प या आपवादिकलिंग के रूप में भी मुक्ति का मार्ग स्वीकार नहीं किया गया है।
मूलगुण सवस्त्रमुक्ति के विरोधी-तिलोयपण्णत्ती की निम्नलिखित गाथा में मूलगुण और उत्तरगुण के धारी मुनियों को ही महाऋद्धिधारी देवों की आयु का बन्धक बतलाया गया है
उत्तरमूलगुणेसुं समिदिसुवदे सज्झाणजोगेसुं।
णिच्चं पमादरहिदां धंति महद्धिग-सुराउं॥ ८/५७५॥ मुनियों के मूलगुण २८ होते हैं, जिनमें आचेलक्य (नग्नत्व) पहला मूलगुण है। मूल का अर्थ है आधार या बुनियाद। अतः 'मूल' शब्द यह द्योतित करता है
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